Monday 10 August 2015

भगवान श्रीराम

लक्ष्मण जी के त्याग की अदभुत कथा । एक अनजाने सत्य से परिचय---

-हनुमानजी की रामभक्ति की गाथा संसार में भर में गाई जाती है।

लक्ष्मणजी की भक्ति भी अद्भुत थी. लक्ष्मणजी की कथा के बिना श्री रामकथा पूर्ण नहीं है अगस्त्य मुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया -

भगवान श्रीराम ने बताया कि उन्होंने कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा॥

अगस्त्य मुनि बोले-

श्रीराम बेशक रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाध ही था ॥ उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर इंद्र से युद्ध किया था और बांधकर लंका ले आया था॥

 ब्रह्मा ने इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा तब इंद्र मुक्त हुए थे ॥

 लक्ष्मण ने उसका वध किया इसलिए वे सबसे बड़े योद्धा हुए ॥

श्रीराम को आश्चर्य हुआ लेकिन भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश थे॥
फिर भी उनके मन में जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर अगस्त्य मुनि ऐसा क्यों कह रहे हैं कि इंद्रजीत का वध रावण से ज्यादा मुश्किल था ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा- प्रभु इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो
💥 चौदह वर्षों तक न सोया हो,
💥 जिसने चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो और
💥 चौदह साल तक भोजन न किया हो ॥

श्रीराम बोले-  परंतु मैं बनवास काल में चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा ॥
मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो, और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है ॥

अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए॥ प्रभु से कुछ छुपा है भला!
दरअसल, सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते थे लेकिन प्रभु चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा -  क्यों न लक्ष्मणजी से पूछा जाए ॥

लक्ष्मणजी आए प्रभु ने कहा कि आपसे जो पूछा जाए उसे सच-
सच कहिएगा॥

प्रभु ने पूछा- हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ?
 फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे ?
और 14 साल तक सोए नहीं ?
 यह कैसे हुआ ?

लक्ष्मणजी ने बताया- भैया जब हम भाभी को तलाशते ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा ॥

आपको स्मरण होगा मैं तो सिवाए उनके पैरों के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं.

चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में सुनिए -  आप औऱ माता एक कुटिया में सोते थे. मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था. निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने की कोशिश की तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था॥

निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी लेकिन जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खड़ा रहूंगा तब वह मुझे घेरेगी ॥ आपको याद होगा
राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था.

अब मैं 14 साल तक अनाहारी कैसे रहा! मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके तीन भाग करते थे. एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो॥ आपने कभी फल खाने को नहीं कहा- फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे?

मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया॥

 सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे ॥ प्रभु के आदेश पर लक्ष्मणजी चित्रकूट की कुटिया में से वे सारे फलों की टोकरी लेकर आए और दरबार में रख दिया॥ फलों की
गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे॥

 प्रभु ने कहा-
इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था?

लक्ष्मणजी ने सात फल कम होने के बारे बताया- उन सात दिनों में फल आए ही नहीं,
 1. जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे॥

2. जिस दिन रावण ने माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता॥

3. जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे,

4. जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे,

5. जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक में
रहे,

6. जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी

7. और जिस दिन आपने रावण-वध किया ॥

इन दिनों में हमें भोजन की सुध कहां थी॥  विश्वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था- बिना आहार किए जीने की विद्या. उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका जिससे इंद्रजीत मारा गया ॥

भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया.


अरण्य कांड के विषय मे कुछ गूढ़ जानकारी !!!!
!!!! अध्ययन करें तब आनन्द मिलेगा !!!!
अरण्यकांड { वन कांड } का नाम इस लिए रखा गया क्यों
कि मानस मे इस कांड की सत्रह चौपाइयों मे "" वन "" शब्द
आया हुआ है | यह तो एक सामान्य जानकारी है |
अरण्यकाँड रामचरित मानस का तीसरा कांड है |
श्री तुलसीदास जी ने लिखा है कि इसमे सप्त सोपान हैं |
तीसरे नं.पर माया पुरी का स्थान है | कुल सप्त पुरियाँ हैं |
हम देखते हैं कि अरण्यकांड मे माया का प्रभाव हर जगह
देखने को मिलता है | अवलोकन करें -----
मोहाम्भोदर पूगपाटनविधौ......( मोह --- माया ही तो है )
माया शूर्पणखा --- रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई....
तब खिसियानि राम पहिं गई, रूप भयंकर प्रगटत भई ||
३-- माया युद्ध ----
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ||
४-+ मायानाथ की माया ---
सुरमुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो ||
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिकेत .....
५---माया सीता --+++
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा .......
६---माया का मृग ------
तब मारीच कपट मृग भयऊ ......
७---+ माया का सन्यासी --
आवा निकट जती के वेषा ...
तब रावन निज रूप देखावा ........
८--- माया का बिरह शोक ------
बाहिज चिंता कीन्हि विशेषी .....
एहि विधि खोजत विलपत स्वामी, मनहु महा विरही अति कामी ||
९---+ सती कृत माया सीता का रूप भी इसी समय हुआ था
१०---माय कबंध ----वह भी गंधर्ब था , शाप वस हुआ था |
ुस
११-- माया रूपी नारि ---++
तुलसी दास जी कांड के अंत मे सचेत करते हैं ----
दीपशिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग. ||
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग. ||
****"""*******
एक विशेष बात यह भी है कि इस ४६ दोहे के कांड मे सोलह
जगह उपदेश मिलते है | और इन सभी उपदेशों का कारण
भी महिलाएं ही हैं चाहे श्रोता हों या कुछ और ||
*****"""""****
यह राम चरित मानस की माया पुरी है | यह एक कांड ऐसा है
जहाँ -- माया , ग्यान , वैराग्य , जीव , ईश्वर और भक्ति का
तात्विक वर्णन सब कुछ यहाँ हुआ है ||
श्री राम प्रभु गुनगान ग्रुप (fb) जय जय सियाराम जी


हिंदी

हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है
और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है
उसके पीछे कुछ कारण है ,
अंग्रेजी भाषा में ये
बात देखने में नहीं आती |
______________________
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए,
 क्योंकि इनके उच्चारण के समय
ध्वनि
कंठ से निकलती है।
एक बार बोल कर देखिये |

च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के
समय जीभ
तालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |

ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए,
क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के
मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
एक बार बोल कर देखिये |


त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के
समय
जीभ दांतों से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |

प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए,
क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के
मिलने
पर ही होता है। एक बार बोल
कर देखिये ।
________________________

हम अपनी भाषा पर गर्व
करते हैं ये सही है परन्तु लोगो को
इसका कारण भी बताईये |
इतनी वैज्ञानिकता
दुनिया की किसी भाषा मे
नही है
जय हिन्द
क,ख,ग क्या कहता है जरा गौर करें....
••••••••••••••••••••••••••••••••••••
क - क्लेश मत करो
ख- खराब मत करो
ग- गर्व ना करो
घ- घमण्ड मत करो
च- चिँता मत करो
छ- छल-कपट मत करो
ज- जवाबदारी निभाओ
झ- झूठ मत बोलो
ट- टिप्पणी मत करो
ठ- ठगो मत
ड- डरपोक मत बनो
ढ- ढोंग ना करो
त- तैश मे मत रहो
थ- थको मत
द- दिलदार बनो
ध- धोखा मत करो
न- नम्र बनो
प- पाप मत करो
फ- फालतू काम मत करो
ब- बिगाङ मत करो
भ- भावुक बनो
म- मधुर बनो
य- यशश्वी बनो
र- रोओ मत
ल- लोभ मत करो
व- वैर मत करो
श- शत्रुता मत करो
ष- षटकोण की तरह स्थिर रहो
स- सच बोलो
ह- हँसमुख रहो
क्ष- क्षमा करो
त्र- त्रास मत करो
ज्ञ- ज्ञानी बनो !!

कृपया इस ज्ञान की जानकारी सभी को अग्र प्रेषित करें ।

ज्योतिष

ज्योतिष क्या है ?
आकाश की ओर दृष्टि डालते ही मस्तिष्क में उत्कण्ठा उत्पन्न होती है कि ये ग्रह नक्षत्र क्या वस्तु है़ ? तारें क्यों टुटकर गिरतें है ? सूर्य प्रतिदिन पूर्व दिशा में ही क्यों उदित होता है ? ऋतुऐं क्रमानुसार क्यों आती है आदि।

मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है - क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? और क्या होगा ? यह केवल प्रत्यक्ष बातों को ही जानकर संतुष्ट नही होता, बल्कि जिन बातों से प्रत्यक्ष लाभ होने की संभवना नही है, उनाके जानने के लिए भी उत्सुक रहता है। जिस बात को जानने की मानव को उत्कट इच्छा रहती है, उसके अवगत हो जाने पर उसे जो आनंद मिलता है, जो तृप्ति होती है उससे वह निहाल हा जाता है।

ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पति- ज्योतिषं सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम् अर्थात् सूर्यादि ग्रहों के विषय में ज्ञान कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहते है। इसमें प्रधानतः ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योतिः पदार्थो का स्वरूप, संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति, प्रभृति, समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह नक्षत्र की गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है। मनीषियों का अभिमत है कि आकाश मण्डल में स्थित ज्योति संबंधी विविध विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते है। ज्योतिष शास्त्र में गणित और फलित दोनों प्रकार के विज्ञानों का समन्वय है। आधुनिक समय में इस शास्त्र को 5 रूपों में बांटकर अध्ययन किया जा रहा है।

ज्योतिष शास्त्र के प्रर्वतक- संपूर्ण ज्योतिष शस्त्र को वेदो का नेत्र कहा गया है। भारतीय संस्कृति की आत्मा को समझने के लिए वेदों का अध्ययन मनन और चिन्तन परम आवश्यक है। जिस पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमान, प्रमाण से नही होता है। उसकी प्रतीति वेदों के आधार पर होती है। यही वेदों का वेदत्व या प्रकाशकत्व कहा जाता है। सनातन संस्कृति का आधार आचार है। आचार या आचरण ही संस्कृति व धर्म का मूल है। तथा समसत आचार यज्ञ प्रधान होने से काल ज्ञान पर निर्भर है। व्यवहार में दैनिक कियाकलापांे का सूयोंदय, सूर्यास्त, दिनरात, तिथि, मास, पक्षादि के बिना संपन्न नहीं हो सकते है। इनके विश्ष्टि काल संपादन के लिये ज्योतिष शास्त्र आवश्यक है। ऋषियों, मनीषीयों, आचार्यो ने अपनी ऋतंभरा प्रज्ञा से इसे समय-समय पर परिष्कृत व शंशोधित किया है। ज्योतिष शास्त्र के 18 महर्षि प्रर्वतक या संस्थापक के रूप् में जाने जाते है। काश्यप् के मतानुसार इनके नाम क्रमशः सूर्य, पितामह, व्यास, वशिष्ट, अत्रि, पाराशर, काश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु एंव शौनक है।

ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कंध होते है।

प्रथम स्कंध ‘‘सिद्धान्त‘‘ - जिसमें त्रुटि से लेकर प्रलय काल तक की गणना, सौर, सावन, नाक्षत्रादि, मासादि, काल मानव का प्रभेद, ग्रह संचार का विस्तार तथा गणित क्रिया की उपपति आदि द्वारा ग्रहों, नक्षत्रों, पृथ्वी की स्थिति का वर्णन किया गया है। इस स्कंद के प्रमुख ग्रंथ ग्रह लाघव, मकरन्द, ज्योर्तिगणित, सूर्य सिद्धान्तादि प्रसिद्ध है।

द्वितीय स्कंध ‘‘संहिता‘‘ - इस स्कन्द में गणित को छोड़कर अंतरिक्ष, ग्रह, नक्षत्र, ब्रह्माण्ड आदि की गति, स्थिति एंव ततत् लोकों में रहने वाले प्राणियों की क्रिया विशष द्वारा समस्त लोकों का समष्टिगत फलों का वर्णन है। उसे संहिता कहते है। वाराह मिहिर की वृहत् संहिता, भद्र बाहु संहिता इस स्कन्द की प्रसिद्ध ग्रंथ है।

तृतीय स्कंध ‘‘होरा‘‘ - होरा इस स्कन्द में जातक, जातिक, मुहूर्त प्रश्नादि का विचार कर व्यष्टि परक या व्यक्तिगत फलादेश का वर्णन है। इस स्कन्द के प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत् जातक, वृहत् पाराशर होरशास्त्र, सारावली, जातक पारिजात, फलदीपिका, उतरकालामृत, लघुपाराशरी, जैमिनी सूत्र और प्रश्नमार्गादि प्रमुख ग्रंथ है।

दैवज्ञ किसे कहते हैं - ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता को ‘‘दैवज्ञ‘‘ के नाम से भी जाना जाता है। दैवज्ञ दो शब्दों से मिलकर बना है। दैव $ अज्ञ। दैव का अर्थ होता है। भाग्य और अज्ञ का अर्थ होता है जानने वाला। अर्थात् भाग्य को जानने वाले को दैवज्ञ कहते है। वाराह मिहिर ने वाराह संहिता में दैवज्ञ के निम्नलिखित गुण बताये है। जिसके अनुसार एक दैवज्ञ का आंतरिक व बाह्य व्यक्तित्व सर्वर्था उदात, महनीय, दर्शनीय व अनुकरणीय होना चाहिये। शांत, विद्या विनय से संपन्न, शास्त्र के प्रति समर्पित, परोपकारी, जितेन्द्रीय, वचन पालक, सत्यवादी, सत्चरित्र, आस्तिक व पर निन्दा विमुख होना चाहिये। वास्तविक दैवज्ञ को ज्योतिष के तीनों स्कनधों का ज्ञान होना आवश्यक है।

ज्योतिष की उत्पत्ति का काल निर्धारण आज तक कोई नही कर सका। क्यांेकि ज्योतिष को वेदका नेत्र माना जाता है और वेद की प्राचीनता सर्व मान्य है। संसार का सबसे प्रचीन ग्रंथ वेद माने जाते हैं और वेद के छः अंग है।

1. शिक्षा
2. कल्प
3. व्याकरण
4. निरूक्त
5. छनद
6. ज्योतिष

मान्यताओं के अनुसार वेद ही सब विद्याओं का उद्गम है। अतः यह स्पष्ट है कि ज्योतिष की उत्पत्ति उतनी ही प्रचीन है जितनी वेदों की।

श्रीकृष्ण

कृष्ण मंदिर जाएं तो जरूर ध्यान रखें
----------------------------
जब भी कृष्ण भगवान के मंदिर जाएं तो यह जरुर
ध्यान रखें कि कृष्ण जी कि मूर्ति की
पीठ के
दर्शन ना करें। दरअसल पीठ के दर्शन न करने के
संबंध में
भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की
एक
कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण
जरासंध से युद्ध कर रहे थे तब जरासंध का एक
साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्ध
करने आ
पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुंचकर
ललकारने लगा।
तब श्रीकृष्ण वहां से भाग निकले। इस तरह
रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़
पड़ा। जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन
भी उनके पीछे-पीछे भागने
लगा। इस तरह भगवान
रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले
जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण
किसी को भी तब तक सजा
नहीं देते जब कि पुण्य
का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्णा की
पीठ
देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म
बढऩे
लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का
वास
होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है। जब
कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण
एक गुफा में चले गए। जहां मुचुकुंद नामक
राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र
का वरदान
था कि जो भी व्यक्ति राजा को निंद से
जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह
भस्म
हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर
उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही
राक्षस
वहीं भस्म हो गया।
अत: भगवान श्री हरि की
पीठ के दर्शन नहीं करने
चाहिए क्योंकि इससे हमारे पुण्य कर्म का प्रभाव
कम होता है और अधर्म बढ़ता है। कृष्णजी के
हमेशा ही मुख की ओर से
ही दर्शन करें।
हरे कृष्ण ! जय श्री कृष्ण



राधा ने पूछा मोहन से :- तुम्हें सब लोग चोर क्यों
कहते हैं ?
मोहन जी बोले :- राधे, मैं चोर हूँ, तभी तो लोग
कहते हैं I
राधा जी ने फिर पूछा :- तुम क्या – क्या चुराते हो ?
कान्हा जी बोले :- तो फिर सुनो, जब मैं छोटा था
तब मैं सब
का मन चुराया करता था I फिर थोड़ा बड़ा हुआ तो मैं
माखन चुराने लगा जब थोड़ा और बड़ा हुआ तो मैंने
गोपिओं के वस्त्र चुराये I
उस के बाद मैं भक्तों के प्यार में ऐसा हो गया, की
मैंने एक नए
तरह की चोरी शुरू कर दी I
राधा जी बोली :- कैसी चोरी ?
कान्हा जी ने बड़ा अच्छा जवाब दियi :- आज कल
मैं अपने
भक्तों के पाप भी चुरा लेता हूँ I
राधा जी बोली :- कहाँ है यह भक्त ?
कान्हा जी बोले :- एक तो इस मैसेज को भेज चुका,
दूसरा इसे
पढ़ रहा है
जय श्री राधे कृष्ण…
राघे… राघे…. 💕


उलाहना लीला............आज सब गोपी मिल के यशोदा मैया कू उलाहना देवे चल दयी........सब ब्रज की नव विवाहित गोपी अपनी अपनी सासन कू बोल के आयी है....माता जी आप घर बैठे हम दे आवेगी यशोदा मैया कू उलाहनो आप जाओगी तो बात बहुत बढ जावेगी.....जरा या दृश्य कू आख बन्द करके निहारो तो सही.....यशोदा मैया की हवेली,सब ब्रज गोपी हवेली के प्रांगण मै खडी भयी है,ठाकुर जी मैया यशोदा के पीछे दुबके खडे है.....इतनी ब्रज गोपी एक संग आज तो जरूर मार पडेगी.......सबकी शिकायत शुरू है गयी...मैया देख तेरो लाला बडो शैतान है ई अपने मित्रन की टोली के संग आवे ओर हम एक दिन सब मेरे घर मै घुस आये मैया छीको ऊचो हतो तो बडो लम्बो बांस लेके आये ओर छीको नीचे गिरा दियो.....मैया आप खावे तो खावे संग मै ग्वाल वालन कू हू खिलावै ओर जो थोडो बहुत बच जावे वाय बन्दर न कू खवाय देये.........एक बोली तेरे संग तो बस माखन सौ बीती बहन मेरे यहा तो गजब कर दियो सत्यनारायण की पूजा रखी घर मै...पुआ पूरी बनाय पतो ना खुशबु सूघ लयी का आय गये भाभी काह है आज बडे माल बन रहै है....मै बोली लाला आज सत्यनारायण जी की पूजा रखी है वाकू प्रसाद तैयार कर रही हू....तो पतो है काह बोले हमहि है सत्यनारायण ला हमहि खवाय दै....मैने नेक डाट दिये तो गुस्सा है के चलै गये,मैने प्रसादी तैयार करी पूजन करिवे कू जैसे ही कक्ष मै पहुची हू देखो तो चोकी पै दो छोटे छोटे पिल्ला बैठे है......ऐसो ऊधम करै तेरो लाला मैया......ठाकुर तो दुबक गये मैया के पीछे,मैया कू थोडो गुस्सा आय गयो.....रोज उलाहने रोज शिकायत काह गयी मेरी छडी.....मैया ने छडी उठाई सब ब्रज गोपी एक संग बोल पडी....मैया मारो मत बस प्यार सौ समझाय देयो.........रसिक सन्त कहते है......." देखे बिन कान्हा जब मन नही माना,इन आखो ने आज देखो ब्रह्म पहचाना है..कृष्ण चरण कमलो को,मन मै बसाना.....इन गोपीयो का ताना ये उलाहना तो बहाना है.......ये ताना ये उलाहना तो सब बहाना है जी मन मै आस तो बस उनके दर्शनो की रहती है.......राधै राधै


कृष्ण कथा
एक जंगल में एक संत अपनी कुटिया में रहते थे। एक
किरात (शिकारी), जब भी वहाँ से
निकलता संत को प्रणाम ज़रूर करता था।
एक दिन किरात संत से बोला की मैं तो मृग
का शिकार करता हूँ,आप किसका शिकार
करने जंगल में बैठे हैं.? संत बोले - श्री कृष्ण का, और
रोने लगे। तब किरात बोला अरे, बाबा
रोते क्यों हो ? मुझे बताओ वो दिखता कैसा
है ? मैं पकड़ के लाऊंगा उसको।
संत ने भगवान का स्वरुप बताया, कि वो
सांवला है, मोर पंख लगाता है, बांसुरी
बजाता है। किरात बोला: बाबा जब तक
आपका शिकार पकड़ नहीं लाता, पानी
नही पियूँगा।
फिर वो एक जगह जाल बिछा कर बैठ गया। 3
दिन बीत गए प्रतीक्षा करते भगवान को
दया आ गयी वो बांसुरी बजाते आ गए, खुद
ही जाल में फंस गए। किरात चिलाने लगा
शिकार मिल गया, शिकार मिल गया।
अच्छा बचचू... 3 दिन भूखा प्यासा रखा, अब
मिले हो.? कृष्ण को शिकार की भांति अपने
कंधे पे डाला और संत के पास ले गया।
बाबा आपका शिकार लाया हुँ, बाबा ने
जब ये दृश्य देखा तो क्या देखते हैं किरात के कंधे
पे श्री कृष्ण हैं और जाल में से मुस्कुरा रहे हैं। संत
चरणों में गिर पड़े फिर ठाकुर से बोले - मैंने
बचपन से घर बार छोडा आप नही मिले और इसे
3 दिन में मिल गए ऐसा क्यों..?
भगवान बोले - इसने तुम्हारा आश्रय लिया
इसलिए इसे 3 दिन में दर्शन हो गए। अर्थात
भगवान पहले उस पर कृपा करते हैं जो उनके
दासों के चरण पकडे होता है, किरात को
पता भी नहीं था की भगवान कौन हैं। पर
संत को रोज़ प्रणाम करता था। संत प्रणाम
और दर्शन का फल ये है कि 3 दिन में ही ठाकुर
मिल गए ।
बोलो राधा रास बिहारी की जय....
07/08/2015, 15:20 - ‪+91 99674 95722‬: 😀😀😀
07/08/2015, 15:42 - ‪+91 94146 74333‬: जो जीव एक बार श्री कृष्ण के शरणागत हो जाता है,
उसे फिर किसी ज्योतिषी को अपनी ग्रहदशा और
जन्म कुंडली दिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
इसके पीछे का विज्ञान तो यह है कि भगवान के
शरणागत जीव की रक्षा स्वयं भगवान किया करते हैं
और सब ग्रह, नक्षत्र, देवी देवता श्री कृष्ण की ही
शक्तियाँ हैं, सब उनके ही दास हैं। इसलिए भक्त का
अनिष्ट कोई कर नहीं सकता और प्रारब्ध जन्य
अनिष्ट को कोई टाल नहीं सकता।
फिर भी कई बार हम अपने हाथों में रंग-बिरंगी
अंगूठियाँ पहनकर, जप, दान आदि करके हम अपने ग्रहों
को तुष्ट करने में लगे रहते हैं।
श्रीकृष्ण हमारे सखा हैं।
आइये अब समझें कि किस ग्रह का हमारे सर्व समर्थ
श्रीकृष्ण से कैसा संसारी नाता है।

1 - जो मृत्यु के राजा हैं यम, वह यमुना जी के भाई हैं
और यमुना जी हैं भगवान की पटरानी, तो यम हुए
भगवान के साले, तो हमारे सखा के साले हमारा क्या
बिगाड़ेंगे?

2 - सूर्य हैं भगवान के ससुर (यमुना जी के पिता) तो
हमारे मित्र के ससुर भला हमारा क्या अहित करेंगे?

3 - सूर्य के पुत्र हैं शनि, तो वह भी भगवान के साले हुए
तो शनिदेव हमारा क्या बिगाड़ लेंगे?

4 - चंद्रमा और लक्ष्मी जी समुद्र से प्रकट हुए थे।
लक्ष्मी जी भगवान की पत्नी हैं, और लक्ष्मी जी के
भाई हैं चंद्रमा, क्योंकि दोनों के पिता हैं समुद्र।
तो चन्द्रमा भी भगवान के साले हुए, तो वे भी
हमारा क्या बिगाड़ेंगे?

5 - बुध चंद्रमा के पुत्र हैं तो उनसे भी हमारे प्यारे का
ससुराल का नाता है। हमारे सखा श्रीकृष्ण बुध के
फूफाजी हुए, तो भला बुध हमारा क्या बिगाड़ेंगे?

6 - बृहस्पति और शुक्र वैसे ही बड़े सौम्य ग्रह हैं फिर ये
दोनों ही परम विद्वान् हैं, इसलिए श्रीकृष्ण के भक्तों
की तरफ इनकी कुदृष्टि कभी हो ही नहीं सकती।

7 - राहु केतु तो बेचारे जिस दिन एक से दो हुए, उस
दिन से आज तक भगवान के चक्र के पराक्रम को कभी
नहीं भूले।
भला वे कृष्ण के सखाओं की ओर टेढ़ी नजर से देखने की
हिम्मत जुटा पाएँगे?

8 - तो अब बचे मंगल ग्रह।
ये हैं तो क्रूर गृह, लेकिन ये तो अपनी सत्यभामा जी
के भाई हैं। चलो ये भी निकले हमारे प्यारे के ससुराल
वाले। अतः श्रीकृष्ण के साले होकर मंगल हमारा
अनिष्ट कैसे करेंगे?
इसलिए श्री कृष्ण के शरणागत को किसी भी ग्रह से
कभी भी डरने की जरूरत नहीं!
संसार में कोई चाहकर भी अब हमारा अनिष्ट नहीं कर
सकता।
इसलिए निर्भय होकर, डंके की चोट पर श्रीकृष्ण से
अपना नाता जोड़े रखिए।
हाँ, जिसने श्रीकृष्ण से अभी तक कोई भी रिश्ता
पक्का नहीं किया है, उसे संसार में पग-पग पर ख़तरा है।



शिव स्वरूपभगवान

शिव स्वरूपभगवान
🌹               🌹
शिव का रूप-स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी। शिव जो धारण करते हैं, उनके भी बड़े व्यापक अर्थ हैं
:जटाएं : शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं।

चंद्र : चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चांद की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत है।

त्रिनेत्र : शिव की तीन आंखें हैं। इसीलिए इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये आंखें सत्व, रज, तम (तीन गुणों), भूत, वर्तमान, भविष्य (तीन कालों), स्वर्ग, मृत्यु पाताल (तीनों लोकों) का प्रतीक हैं।

सर्पहार : सर्प जैसा हिंसक जीव शिव के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक जीव है, जिसे शिव ने अपने वश में कर रखा है।

त्रिशूल : शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।

डमरू : शिव के एक हाथ में डमरू है, जिसे वह तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्मा रूप है।

मुंडमाला : शिव के गले में मुंडमाला है, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है।

छाल : शिव ने शरीर पर व्याघ्र चर्म यानी बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।

भस्म : शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है।

वृषभ : शिव का वाहन वृषभ यानी बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से ही मिलते हैं।


इस तरह शिव-स्वरूप हमें बताता है कि उनका रूप विराट और अनंत है, महिमा अपरंपार है। उनमें ही सारी सृष्टि समाई हुई है।







शिवालय में शिवलिंग के दर्शन करने से पूर्व नंदी के दर्शन करने का महत्त्व
        हिन्दू धर्म बताता है कि शिवलिंग के दर्शन से पहले नंदी के दोनों सींगों को स्पर्श कर उसके दर्शन करें । इसे श्रृंगदर्शन कहते है । व्यक्ति नंदी के दाहिनी ओर बैठकर अथवा खडा होकर अपना बायां हाथ नंदी के वृषण पर रखें । पश्चात दाहिने हाथ की तर्जनी (अंगूठे की निकट की उंगली) एवं अंगूठा नंदी के दोनों सींगों पर रखें । अब तर्जनी एवं अंगूठे की बीचकर रिक्ति से शिवलिंग के दर्शन करें । यह शृंगदर्शन करने की उचित पद्धति है ।



१. नंदी के सींगों से प्रक्षेपित शिवतत्त्व की सगुण मारक तरंगों के कारण जीव के शरीर के रज-तम कणों का विघटन होकर, जीव की सात्त्विकता में वृद्धि संभव होना

        सींगों को हाथ लगाने से जीव के शरीर में पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित शक्ति-तरंगें हाथों से संक्रमित होती हैं । नंदी शिव की मारक शक्ति का प्रतीक है । नंदी के सींगों से प्रक्षेपित शिवतत्त्व की सगुण मारक तरंगों के कारण जीव के शरीर के रज-तम कणों का विघटन होता है तथा उसकी सात्त्विकता बढती है । इससे शिवलिंग से प्रक्षेपित शक्तिशाली तरंगों को सहन करना जीव के लिए संभव होता है; अन्यथा इन तरंगों से मस्तिष्क सुन्न होना, शरीर में अचानक कंपकंपी जैसे कष्ट हो सकते हैं ।

२. दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे को नंदीदेव के सींगों पर रखने से शिवजी की पिंडी से प्रक्षेपित शक्ति का स्त्रोत अधिक मात्रा में कार्यरत होना



        दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे को नंदीदेव के सींगों पर रखने से जो मुद्रा (हाथ की अंगुलियों को आपस में मिलाने से अथवा विशेष प्रकार से जोडने से विविध प्रकार के आकार बनते हैं, जिन्हें मुद्रा कहते हैं ।) बनती है, उससे भक्तगणों को आध्यात्मिक स्तर पर अधिक लाभ होता है । उदा. नली द्वारा छोडी गई वायु का वेग एवं तीव्रता अधिक रहती है, इसके विरुद्ध पंखे की हवा सर्वत्र फैलती है । ऐसा लगता है कि इस मुद्रा से नली समान कार्य होता है । इस मुद्रा से शिवजी की पिंडी से प्रक्षेपित शक्तिपुंज अधिक कार्यरत होता है । इस प्रकार की मुद्रा से शक्ति के स्पंदन पूरे शरीर में फैलते हैं ।’



३. साधारण आध्यात्मिक स्तर का श्रद्धालु नंदी के एक ओर खडे रहकर दर्शन करें

        दर्शन करते समय शिवलिंग एवं नंदी के मध्य में बैठकर अथवा खडे होकर न करें । नंदी के बगल में खडे रहकर करें ।

शिव एवं श्रीविष्णु उच्च देवता होने के कारण उनसे (उनकी मूर्ति से) निरंतर अधिक मात्रा में शक्तिका प्रक्षेपण होता रहता है ।

शिव से सीधे आनेवाली प्रकट शक्ति की तरंगों के कारण साधारण व्यक्ति की देहमें उष्णता उत्पन्न होने से उसपर विपरीत परिणाम होना : जब व्यक्ति शिवपिंडी एवं नंदीकी रेखा के मध्य खडे रहकर दर्शन करता है, उस समय शिवपिंडी से प्रक्षेपित प्रकट शक्ति की तरंगों का व्यक्ति की देह पर आघात होता है । मारक प्रकट शक्ति की तरंगें साधारण व्यक्ति के लिए ग्रहण करनेयोग्य नहीं होतीं । इससे उसकी देह में उष्णता उत्पन्न होकर उस पर विपरीत परिणाम होता है ।

नंदी के एक ओर खडे रहकर पिंडी का दर्शन करने से नंदी के कारण शिव की शक्ति का सौम्य शक्ति में रूपांतर होकर उसे सहजता से ग्रहण करना संभव होना : शिवपिंडी के सम्मुख स्थित नंदी, शिवपिंडी से प्रक्षेपित प्रकट शक्ति को सौम्य बनाकर व्यक्ति को प्राप्त करनेयोग्य बनाने का कार्य करता है । अतः नंदी के एक ओर खडे रहकर पिंडी का दर्शन करने से व्यक्ति के लिए शिव-तत्त्वस्वरूप शक्ति सहजता से ग्रहण करना संभव होता है ।


सर्व सम्पत्ति और सुख प्रदान करता "श्री दत्तात्रेय"
श्री दत्तात्रेय उपासना

भगवान शंकर का साक्षात रूप महाराज दत्तात्रेय में मिलता है,और तीनो ईश्वरीय शक्तियो से समाहित महाराज दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफ़ल और जल्दी से फ़ल देने वाली है,महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी,अवधूत,और दिगम्बर रहे थे,वे सर्वव्यापी है,और किसी प्रकार के संकट में बहुत जल्दी से भक्त की सुध लेने वाले है,अगर मानसिक,या कर्म से या वाणी से महाराज दत्तात्रेय की उपासना की जावे तो भक्त किसी भी कठिनाई से बहुत जल्दी दूर हो जाते है.

श्री दत्तात्रेय की उपासना विधि
श्री दत्तात्रेय जी की प्रतिमा,चित्र या यंत्र को लाकर लाल कपडे पर स्थापित करने के बाद चन्दन लगाकर,फ़ूल चढाकर,धूप की धूनी देकर,नैवेद्य चढाकर दीपक से आरती उतारकर पूजा की जाती है,पूजा के समय में उनके लिये पहले स्तोत्र को ध्यान से पढा जाता है,फ़िर मन्त्र का जाप किया आता है,उनकी उपासना तुरत प्रभावी हो जाती है,और शीघ्र ही साधक को उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है,साधकों को उनकी उपस्थिति का आभास सुगन्ध के द्वारा,दिव्य प्रकाश के द्वारा,या साक्षात उनके दर्शन से होता है,साधना के समय अचानक स्फ़ूर्ति आना भी उनकी उपस्थिति का आभास देती है,भगवान दत्तात्रेय बडे दयालो और आशुतोष है,वे कहीं भी कभी भी किसी भी भक्त को उनको पुकारने पर सहायता के लिये अपनी शक्ति को भेजते है.

श्री दत्तात्रेय की उपासना में विनियोग विधि
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पूजा करने के आरम्भ में भगवान श्री दत्तात्रेय के लिय आवाहन किया जाता है,एक साफ़ बर्तन में पानी लेकर पास में रखना चाहिये,बायें हाथ में एक फ़ूल और चावल के दाने लेकर इस प्रकार से विनियोग करना चाहिये- "ऊँ अस्य श्री दत्तात्रेय स्तोत्र मंत्रस्य भगवान नारद ऋषि: अनुष्टुप छन्द:,श्री दत्त परमात्मा देवता:, श्री दत्त प्रीत्यर्थे जपे विनोयोग:",इतना कहकर दाहिने हाथ से फ़ूल और चावल लेकर भगवान दत्तात्रेय की प्रतिमा,चित्र या यंत्र पर सिर को झुकाकर चढाने चाहिये,फ़ूल और चावल को चढाने के बाद हाथों को पानी से साफ़ कर लेना चाहिये,और दोनों हाथों को जोडकर प्रणाम मुद्रा में उनके लिये जप स्तुति को करना चाहिये,जप स्तुति इस प्रकार से है:-"जटाधरं पाण्डुरंगं शूलहस्तं कृपानिधिम। सर्व रोग हरं देव,दत्तात्रेयमहं भज॥"

श्री दत्तात्रेयजी का जाप करने वाला मंत्र
पूजा करने में फ़ूल और नैवेद्य चढाने के बाद आरती करनी चाहिये और आरती करने के समय यह स्तोत्र पढना चाहिये:-
जगदुत्पति कर्त्रै च स्थिति संहार हेतवे। भव पाश विमुक्ताय दत्तात्रेय नमो॓‍ऽस्तुते॥
जराजन्म विनाशाय देह शुद्धि कराय च। दिगम्बर दयामूर्ति दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
कर्पूरकान्ति देहाय ब्रह्ममूर्तिधराय च। वेदशास्त्रं परिज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
ह्रस्व दीर्घ कृशस्थूलं नामगोत्रा विवर्जित। पंचभूतैकदीप्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
यज्ञभोक्त्रे च यज्ञाय यशरूपाय तथा च वै। यज्ञ प्रियाय सिद्धाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णु: अन्ते देव: सदाशिव:। मूर्तिमय स्वरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
भोगलयाय भोगाय भोग योग्याय धारिणे। जितेन्द्रिय जितज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
दिगम्बराय दिव्याय दिव्यरूप धराय च। सदोदित प्रब्रह्म दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
जम्बूद्वीपे महाक्षेत्रे मातापुर निवासिने। जयमान सता देवं दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
भिक्षाटनं गृहे ग्रामं पात्रं हेममयं करे। नानास्वादमयी भिक्षा दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वक्त्रो चाकाश भूतले। प्रज्ञानधन बोधाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
अवधूत सदानन्द परब्रह्म स्वरूपिणे। विदेह देह रूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
सत्यरूप सदाचार सत्यधर्म परायण। सत्याश्रम परोक्षाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
शूल हस्ताय गदापाणे वनमाला सुकंधर। यज्ञसूत्रधर ब्रह्मान दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
क्षराक्षरस्वरूपाय परात्पर पराय च। दत्तमुक्ति परस्तोत्र दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
दत्तविद्याठ्य लक्ष्मीशं दत्तस्वात्म स्वरूपिणे। गुणनिर्गुण रूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
शत्रु नाश करं स्तोत्रं ज्ञान विज्ञान दायकम।सर्वपाप शमं याति दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥

इस स्तोत्र को पढने के बाद एक सौ आठबार "ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां ऊँ द्रां " का जाप मानसिक रूप से करना चाहिये.इसके बाद दस माला का जाप नित्य इस मंत्र से करना चाहिये " ऊँ द्रां दत्तात्रेयाय स्वाहा"।

दत्त स्वरूप चिंता
ब्रह्मा विष्णु और महेश की आभा में दत्तात्रेय जी का ध्यान सदा कल्याण कारी माना जाता है। गुरु दत्त के रूप में ब्रह्मा दत्त के रूप में विष्णु और शिवदत्त के रूप में भगवान शिव की आराधना करनी अति उत्तम रहती है। काशी नगरी में एक ब्राह्मण रहता था,उसने स्वप्न में देखा कि भगवान शिव के तीन सिर है,और तीनों सिरों से वे बात कर रहे है,एक सिर कुछ कह रहा है दूसरा सिर उसे सुन रहा है और तीसरा सिर उस कही हुयी बात को चारों तरफ़ प्रसारित कर रहा है,जब उसने मनीषियों से इस बात का जिक्र किया तो उन्होने भगवान दत्तात्रेय जी के बारे में उसे बताया। दत्तात्रेयजी का कहीं भी प्रकट होना भी माना जाता है,उनके उपासक गुरु के रूप में उन्हे मानते है,स्वामी समर्थ आदि कितने ही गुरु के अनुगामी साधक इस धरती पर पैदा हुये और अपनी अपनी भक्ति से भगवान दत्तात्रेय जी के प्रति अपनी अपनी श्रद्धा प्रकट करने के बाद अपने अपने धाम को चले गये है।

दत्तात्रेय की गाथा
एक बार वैदिक कर्मों का, धर्म का तथा वर्णव्यवस्था का लोप हो गया था। उस समय दत्तात्रेय ने इन सबका पुनरूद्धार किया था। हैहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं से उन्हें प्रसन्न करके चार वर प्राप्त किये थे:

1. बलवान, सत्यवादी, मनस्वी, अदोषदर्शी तथा सहस्त्र भुजाओं वाला बनने का
2. जरायुज तथा अंडज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत का शासन करने के सामर्थ्य का।
3. देवता, ऋषियों, ब्राह्मणों आदि का यजन करने तथा शत्रुओं का संहार कर पाने का तथा
4. इहलोक, स्वर्गलोक और परलोक विख्यात अनुपम पुरुष के हाथों मारे जाने का।

* कार्तवीर्य अर्जुन (कृतवीर्य का ज्येष्ठ पुत्र) के द्वारा दत्तात्रेय ने लाखों वर्षों तक लोक कल्याण करवाया। कार्तवीर्य अर्जुन, पुण्यात्मा, प्रजा का रक्षक तथा पालक था। जब वह समुद्र में चलता था तब उसके कपड़े भीगते नहीं थे। उत्तरोत्तर वीरता के प्रमाद से उसका पतन हुआ तथा उसका संहार परशुराम-रूपी अवतार ने किया।
* कृतवीर्य हैहयराज की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र अर्जुन का राज्याभिषेक होने का अवसर आया तो अर्जुन ने राज्यभार ग्रहण करने के प्रति उदासीनता व्यक्त की। उसने कहा कि प्रजा का हर व्यक्ति अपनी आय का बारहवां भाग इसलिए राजा को देता है कि राजा उसकी सुरक्षा करे। किंतु अनेक बार उसे अपनी सुरक्षा के लिए और उपायों का प्रयोग भी करना पड़ता हैं, अत: राजा का नरक में जाना अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसे राज्य को ग्रहण करने से क्या लाभ? उनकी बात सुनकर गर्ग मुनि ने कहा-'तुम्हें दत्तात्रेय का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि उनके रूप में विष्णु ने अवतार लिया है।
* एक बार देवता गण दैत्यों से हारकर बृहस्पति की शरण में गये। बृहस्पति ने उन्हें गर्ग के पास भेजा। वे लक्ष्मी (अपनी पत्नी) सहित आश्रम में विराजमान थे। उन्होंने दानवों को वहां जाने के लिए कहा। देवताओं ने दानवों को युद्ध के लिए ललकारा, फिर दत्तात्रेय के आश्रम में शरण ली। जब दैत्य आश्रम में पहुंचे तो लक्ष्मी का सौंदर्य देखकर आसक्त हो गये। युद्ध की बात भुलाकर वे लोग लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर अपने मस्तक से उनका वहन करते हुए चल दिये। पर नारी का स्पर्श करने के कारण उनका तेज नष्ट हो गया। दत्तात्रेय की प्रेरणा से देवताओं ने युद्ध करके उन्हें हरा दिया। दत्तात्रेय की पत्नी, लक्ष्मी पुन: उनके पास पहुंच गयी।' अर्जुन ने उनके प्रभाव विषयक कथा सुनी तो दत्तात्रेय के आश्रम में गये। अपनी सेवा से प्रसन्न कर उन्होंने अनेक वर प्राप्त किये। मुख्य रूप से उन्होंने प्रजा का न्यायपूर्वक पालन तथा युद्धक्षेत्र में एक सहस्त्र हाथ मांगे। साथ ही यह वर भी प्राप्त किया कि कुमार्ग पर चलते ही उन्हें सदैव कोई उपदेशक मिलेगा। तदनंतर अर्जुन का राज्याभिषेक हुआ तथा उसने चिरकाल तक न्यायपूर्वक राज्य-कार्य संपन्न किया।
संकलित.....


हैं अचूक शिव उपाय
भगवान शिव अनादि व अनन्त हैं अर्थात न तो कोई भगवान शिव के प्रारंभ के बारे में जानता है और न ही कोई अंत के बारे में। इसलिए इन्हें अजन्मा और अनश्वर भी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव सिर्फ एक लोटा जल चढ़ाने से भी प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान शिव को तंत्र शास्त्र का देवता भी कहा जाता है। तंत्र शास्त्र के अनुसार अगर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कुछ विशेष टोटके किए जाएं तो उसका बहुत ही जल्दी शुभ फल प्राप्त होता है।
शिवपुराण व अन्य ग्रंथों में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कई उपाय व टोटके बताए गए हैं। अगर ये उपाय व टोटके श्रावण (सावन) के महीने में किए जाएं तो भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और भक्त की हर मुराद पूरी कर देते हैं। इस बार 10 अगस्त, रविवार को श्रावण का अंतिम दिन है। इससे पहले अगर कोई भक्त ये टोटके करे तो उसकी हर मनोकामना पूरी हो सकती है। ये टोटके इस प्रकार हैं-
जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है-
- भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।
- तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।
- जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।
- भगवान शिव को गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।
यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।
शिवपुराण में विभिन्न रसों से भगवान शिव की पूजा का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है, जिससे साधक को कई रोगों से छुटकारा मिल जाता है। वहीं मन चाहे फल की प्राप्ति भी होती है। यह इस प्रकार है-
- ज्वर (बुखार) से पीडि़त होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्रताशीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है। 
- नपुंसक व्यक्ति अगर घी से शिव की पूजा करे व ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान हो जाता है।
- तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।
- सुगंधित तेल से शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।
- भगवान शिव पर ईख (गन्ना) के रस की धारा चढ़ाई जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।
- शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
- मधु(शहद) की धारा शिव पर चढ़ाने से राजयक्ष्मा(टीबी) रोग दूर हो जाता है।
शिवपुराण की रुद्र संहिता में भगवान शिव का विभिन्न पुष्पों से पूजन करने तथा उनसे प्राप्त होने वाले फलों का विस्तृत वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है-
- लाल व सफेद आंकड़े के फूल से शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।
- अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।
- शमी पत्रों से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
- बेला के फूल से पूजन करने पर शुभ लक्षणों से युक्त पत्नी मिलती है।
- जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
- कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नवीन वस्त्रों की प्राप्ति होती है।
- हरसिंगार के पुष्पों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
- धतूरे के पुष्प से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।
- लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।
- दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।
इनकम बढ़ाने के लिए श्रावण में ये उपाय करें
श्रावण में किसी भी दिन घर में पारद शिवलिंग की स्थापना करें और यथा विधि पूजन करें। इसके बाद नीचे लिखे मंत्र का 108 बार जप करें-
ऐं ह्रीं श्रीं ऊं नम: शिवाय: श्रीं ह्रीं ऐं
प्रत्येक मंत्र के साथ एक बिल्वपत्र पारद शिवलिंग पर चढ़ाएं। बिल्वपत्र के तीनों दलों पर लाल चंदन से क्रमश: ऐं, ह्री, श्रीं लिखें। यह प्रयोग चालीस दिन तक करना है। अंतिम दिन जो 108 वां बिल्वपत्र रहे, उसे शिवलिंग पर चढ़ाने के बाद निकाल लें तथा उसे एक कांच के फ्रेम में चढ़वा कर प्रतिदिन उसकी पूजा करें। शीघ्र ही आपकी इनकम बढऩे लगेगी।
संतान प्राप्ति के लिए उपाय
श्रावण में किसी भी दिन सुबह जल्दी उठकर नहाकर, साफ वस्त्र पहनकर भगवान शिव का पूजन करें। इसके पश्चात गेहूं के आटे से ग्यारह शिवलिंग बनाएं। अब प्रत्येक शिवलिंग का शिवमहिम्नस्त्रोत से जलाभिषेक करें। इस प्रकार 11 बार जलाभिषेक करें। उस जल का कुछ भाग प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। 
अगर आप पितृदोष, कालसर्प दोष, शनि की साढ़ेसाती, ढय्या आदि के दुष्प्रभावों को कम करना चाहते हैं तो श्रावण में इस मंत्र का जाप करें-
महामृत्युंजय मंत्र
ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम
उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मा मृतात

कैसे करें जप?
- श्रावण में किसी भी दिन जल्दी उठकर साफ वस्त्र पहनकर सबसे पहले भगवान शिव की पूजा करें।
- भगवान शिव को बिल्व पत्र व भांग अर्पित करें। इसके बाद अकेले में कुश के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से इस मंत्र का जप करें।
- कम से कम 5 माला जाप अवश्य करें।
कालसर्प दोष का प्रभाव कम करने के लिए श्रावण में ये उपाय करें
श्रावण में किसी भी दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि कार्यों से निवृत्त होकर किसी शिव मंदिर में जाकर या घर पर ही एकांत में भगवान शिव की प्रतिमा के सामने महामृत्युंजय मंत्र का 108 बार जप करें। प्रत्येक मंत्र जप के साथ एक बिल्वपत्र भगवान शिव पर चढ़ाते रहें।
मंत्र
ऊँ हौं ऊं जूं स: भूर्भुव: स्व: त्र्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवद्र्धनम्।
उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् भूर्भुव: स्वरों जूं स: हौं ऊं।।
इसके बाद प्रत्येक दिन इस मंत्र का जप 108 बार करें। यदि यह संभव न हो तो जितना जाप आप कर सकें, उतना ही करें। इस उपाय से कालसर्प दोष का असर कम होने लगेगा तथा हर कार्य में सफलता मिलने लगेगी।


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एक समय श्रीशंकर भगवान माता पार्वती के साथ कैलाश पर विराजमान थे | माता पार्वती भगवान शिव जी को बहुत देर से चिंतित देख कर शिव जी से पूछीं | भगवन मैं आपको बहुत देर से चिंतित देख रही हूँ | क्या में जान सकती हूँ कि आपकी चिंता का विषय क्या है | तब भगवान शिव जी माता पार्वती जी से बोले कि हे देवी, मेरी चिंता का विषय यह है कि सब लोग अपने - अपने गुरु बनाते हैं | पर आज तक हमने किसी को गुरु नहीं बनाया | क्यों कि कहा गया है कि जीवन में जब तक गुरु नहीं बनाया, तब तक का किया हुआ सभी पुन्य कार्यों का फल नहीं मिलता | हम रात दिन राम - राम जपते हैं पर उसका कोई फल हमें प्राप्त नहीं होता |इस लिये बिचार कर रहा हूँ | कि जगत में गुरु बनाये तो किसको | इस पर माता पार्वती बोली कि आप जिनका रात दिन भजन करते हैं उन्ही को गुरु बना लीजिये | तब भगवान शिव जी बोले कि जिनका में भजन करता हूँ उनको तो पूरा संसार भजता है | इस लिये ये नहीं कुछ नया होना चाहिये | तब माता पार्वती जी भगवान शिव जी से बोलीं कि तब तो एक ही रास्ता है | क्यों ना भगवान विष्णु जी को श्री कृष्ण जी के नये रूप में और श्री लक्ष्मी जी को श्री राधा रानी जी के नये रूप में बना कर उनकी पूजा करके आप उन्हें गुरु बना लीजिये | भगवान शिव जी माता पार्वती जी की बात सुन कर प्रसन्न हो उठे | और बोले "हे देवी" तब तो मैं आज ही जा कर भगवान श्री विष्णु जी से अपना गुरु बनाने के लिए आग्रह करता हूँ | माता पार्वती बोली "हे नाथ" आपकी आज्ञा हो तो मैं भी आपके साथ श्रीविष्णु लोक चलना चाहती हूँ | तब भगवान शिव और माता पार्वती श्रीविष्णु लोक के लिए प्रस्थान कर गये | श्रीविष्णु लोक पहुँच कर भगवान शिव जी और माता पार्वती जी भगवान श्रीविष्णु जी से बोले की ऐसे तो हम रात दिन आपका भजन करते ही हैं पर आज तक हमने किसी को गुरु नहीं बनाया इस लिए हमें हमारे भजन का फल नहीं मिलता, इस लिए हमने बिचार किया है की हम आपको ही गुरु बनाये | इस लिए आप और माता श्रीलक्ष्मी जी श्रीविरजा नदी के तट पर पधारें हम वहीँ आपको गुरु बनायेंगे |भगवान श्रीविष्णु जी और माता श्रीलक्ष्मी जी भगवान शिव जी का आमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया | भगवान शिव और माता पार्वती जी वापस अपने स्थान कैलाश पर आ गये | कुछ समय बाद भगवान शिव जी द्वारा दिये गये समय के अनुसार श्रीविष्णु जी और माता श्रीलक्ष्मी जी श्रीविरजा नदी के तट पर बताये गये जगह पर पहुँच गये |भगवान शिव जी और माता पार्वती जी ने भगवान श्रीविष्णु जी और माता श्रीलक्ष्मी जी का भव्य स्वागत किया | "स्वागत में भगवान शिव जी सभी लोकों से अलग श्रीविरजा नदी के तट पर एक नए लोक का निर्माण किया, जिसमें अनेकानेक गाये थीं सभी प्रकार के फलों के वृक्ष थे | मोर, तोता सभी पक्षी मोजूद थे | शीतल मन्द सुगन्ध हवायें चल रही थी | एक बहुत बड़ा सोने का रत्न जड़ित सिंहासन बना हुआ था" जिसका "श्रीगौलोक धाम" नाम दिया गया | स्वागत के बाद भगवान शिव जी और माता पार्वती जी भगवान श्रीविष्णु जी और श्रीलक्ष्मी जी को पहले एक नया स्वरूप दिया | जिसमें श्रीविष्णु जी को श्रीकृष्ण जी के रूप में और श्रीलक्ष्मी जी को श्रीराधा जी के रूप में सजा कर उस सोने के सिंहासन पर बिठा कर विधि विधान से पूजन अर्चन करके फिर उनको अपना गुरु बनाया | और कहा कि महाराज ये लोक जिसका नाम "गौलोक धाम" है, ये आपकी विहार स्थली है | ये सारी गाय इस धाम में उपस्थित सभी वस्तु आपको समर्पित है | आप इसी रूप में ( श्रीराधा कृष्ण ) सदा यहाँ निवास करिये | और अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करिये | तदुपरान्त भगवान शिव जी और माता पार्वती अपने धाम कैलाश को वापस आ गये | एक दिन श्रीराधा जी और श्रीकृष्ण जी अपने धाम श्रीगौलोक में विहार कर रहे थे, दोनों विहार में इतने मद मस्त थे कि, तभी उसी समय श्रीराधा रानी जी के भाई वहाँ से गुजरे | श्रीराधा जी और श्रीकृष्ण जी दोनों ही उनको नहीं देखे और ना ही उनके और ध्यान दिये | जिस पर श्रीराधा रानी जी के भाई को क्रोध आ गया कि, हम यहाँ से गुजर रहे हैं और ये लोग विहार में इतने मद मस्त हैं कि इनको हमारी ओर जरा भी ध्यान नहीं है | जिस पर श्रीराधा रानी जी के भाई ने श्रीराधा रानी जी को और श्रीकृष्ण जी को श्राप दे दिया कि आप लोग में जितना अधिक प्रेम है आप दोनों उतने ही दूर चले जाओगे | श्राप दे कर भाई तो चले गये | तब श्रीकृष्ण जी श्रीराधा रानी जी से बोले कि आपके भाई द्वारा दिए गये श्राप के फल को भोगने के लिए तो मृत्युलोक में जाना पड़ेगा | क्यों कि यहाँ तो इस श्राप को भोगने का कोई साधन नहीं है | ये सुन कर श्रीराधा रानी जी रोने लगीं | और भगवान श्रीकृष्ण जी से बोलीं कि हम तो मृत्युलोक नहीं जायेंगे | क्यों कि वहाँ का लोक हमारे अनकूल नहीं है | 
वहाँ पाप अधिक है पुन्य कम है | तब भगवान श्रीकृष्ण जी बोले कि चाहे वहाँ जो भी हो, श्राप भोगने तो वहीँ जाना होगा | श्रीराधा रानी जी मृत्युलोक में आने के लिए किसी भी प्रकार से तैयार नहीं हो रहीं थीं, तब अन्त में श्रीकृष्ण जी बोले कि एक उपाय है | क्यों ना हम इस गौलोक धाम को ही वहाँ ले चलें | इस पर श्रीराधा रानी जी मृत्युलोक आने के लिए तैयार हो गयीं | तब भगवान श्रीकृष्ण जी सर्व प्रथम श्रीयमुना जी को पृथ्वी ( धरती ) पर आने को कहा, फिर श्रीविरजा नदी का जल ( पानी ) श्रीयमुना जी में छोड़ा गया | इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण जी गौलोक धाम से ( 84 ) चौरासी अँगुल गौलोक धाम कि मिटटी पृथ्वी पर एक सीमित क्षेत्र चौरासी कोस में बर्षा की, 84 कोस बराबर 252 कि. मी.| श्रीविरजा नदी का जल और श्रीगौलोक धाम की मिटटी चौरासी कोस के क्षेत्र में एक साथ आने के कारण इस क्षेत्र का नाम ब्रज क्षेत्र पड़ा | इस ब्रज क्षेत्र में 12 वन, 24 उपवन, 20 कुण्ड और नन्द गाँव, बरसाना, गोकुल, गोवर्धन, वृन्दावन, मथुरा, कोसी, राधा कुण्ड आदि क्षेत्र इसके अंतर्गत आते हैं | ( चौरासी अँगुल इस लिए कि धर्म शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी पर हर मनुष्य का शरीर अपने हाथ कि अँगुली से चौरासी अँगुल का ही होता है | ) इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण जी गौलोक धाम के सभी पशु पक्षी इत्यादि को बोले कि आप श्रीराधा रानी जी कि सेवा में ब्रज में जाइये | तब जा कर श्रीराधा रानी जी सर्व प्रथम ब्रज क्षेत्र के बरसाने में श्रीबृसभान जी के यहाँ प्रगट हुयीं | श्रीराधा रानी जी के ब्रज में आने के कई वर्ष बाद श्रीकृष्ण भगवान मथुरा में अपने मामा कंस के कारागृह में बन्द श्रीवासुदेव जी के यहाँ पधारे | और बाल्यकाल कि सभी लीला श्रीराधा रानी जी के साथ ब्रज में ही किया | इसके बाद श्रीकृष्ण जी तो ब्रज छोड़ कर चले गये, पर श्रीराधा रानी जी अपने भाई द्वारा दिए श्राप को ब्रज में ही बितायीं और बाद में अपने धाम गौलोक को चली गयी | बोलो जय श्री राधे | श्री मद भागवत पुराण आदि में ऋषि - सन्तों का बर्णन है कि कलयुग में ब्रज चौरासी कोस कि परिक्रमा लगाने से चौरासी जन्म के पापों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है | मुक्ति कहे गोपाल से, मेरी मुक्ति बताओ | ब्रज रज जब माथे चड़े, मुक्ति मुक्त हो जाय || ब्रज चौरासी कोस कि परिकम्मा जो देत| तो लख चौरासी कोस के पाप हरि हर लेत ||


वैसे तो भगवान शिव की शक्ति, महिमा और दयालुता की बहुत-सी कहानियाँ प्रचलित हैं। लेकिन एक बड़ी विचित्र एवं रोचक कथा इस संबंध में आती है। जो आज भी उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के अन्तर्गत रसड़ा तहसील में, खैराडीह में एवं आसपास के इलाकों में बहुत अर्से से जानी जाती है। सावन के महीने में एक नवविवाहिता दुल्हन को विदाई कराकर कहार डोली में बिठाकर चले जा रहे थे। खैराडीह के नजदीक एक शिव मंदिर के पास पहुँचने पर बड़े जोर से बारिश होने लगी।
कहारों ने डोली वहीं पर उतार कर मंदिर में रख दी और खुद बरामदे में बैठ गए। दुल्हन अन्दर शिवलिंग के पास एक कोने में लाज एवं संकोच में दुबकी बैठी थी। अचानक उसके पेट में मरोड़ उठने लगा। लेकिन पेट दर्द बर्दाश्त न कर सकने के कारण दुल्हन ने वहीं पर शौच कर दिया।
परम भगत भयहारी तथा अपने भक्तों की मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले भगवान शिव ने तत्काल उस मलमूत्र को सोने एवं हीरे में बदल दिया। धीरे-धीरे यह बात आस-पास के इलाकों भी फैल गई।
अब लोग जबर्दस्ती अपनी बहुओं को ले जाकर उस शिव मंदिर में शौच कराने लगे। तब भगवान शिव के कोप से वह समस्त गाँव ही सिरे से उलट गया व पूरा गाँव उस उलटी हुई धरती के नीचे दब कर एक टीला या देहाती शब्दों में डीह बन गया। और आज भी बहुत दूरी में, कई कोस में फैला हुआ वह टीला 'खैराडीह' के नाम से प्रसिद्ध है।


पौराणिक कथाओं एवं जनश्रुतियों में जो कहावतें सुनने को मिलती हैं। उससे यह स्पष्ट है कि धन सम्पदा एवं लक्ष्मी प्राप्ति में शिव पूजा के समान अन्य कोई उपाय नहीं है। जटाधारी भुजगपतिहारी चिताभस्मलेपी गंगाधर भगवान भोलेनाथ अपने तीसरे नेत्र की भीषण वेधनक्षमता वाली उग्र ज्वालामयी नेत्र ज्योति से ब्रह्माण्ड के पार तक के दृश्य को समग्र रूप से देख पाने में समर्थ है।
कंठ में हलाहल होने के कारण अन्दर से विकल किन्तु समस्त जगत को सुख-शान्ति प्रदान करने हेतु अति सूक्ष्म तथा विकट कारणों का भी निवारण कर देते हैं। आवश्यकता मात्र भगवान साम्बसदाशिव की शरण में जाने की है। वह भी विश्वास के साथ।
सदा छप्पन भोग एवं सोने-चाँदी से भगवान शिव की पूजा करने वाले राजा छविकृति भगवान शनि के प्रकोप से नष्ट हो गए। कारण यह था कि उन्होंने भगवान शिव की पूजा- श्रद्धा एवं विश्वास के साथ नहीं बल्कि अपनी वाहवाही, दिखावे के लिए ही किया था।
किन्तु क्रम से विधिपूर्वक हल्दी, चन्दन, बेलपत्र, धतूरा, पुष्प एवं जल चढ़ाने वाली प्रभावती के डर से शनि देव को तब तक वृष राशि में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं पड़ी। जब तक उसकी राशि का स्वामी शुक्र मीन राशि में गुरु के साथ और चन्द्रमा उसकी राशि में प्रवेश नहीं कर गया। तब तक शनि देव को इंतजार करना पड़ गया।
राजा छविकृति ने केवल उचित क्रम से ही पदार्थों को शिव लिंग पर चढ़ाया था। 'रुद्रनिधान' में क्रम निम्न प्रकार बताया गया है। इसी क्रम में पदार्थों को शिवलिंग पर चढ़ाने का विधान है।
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नीरसचन्दनबिल्वपत्रेत्रगंधानुलेपनं। हरिद्राखण्डं पुष्पार्पणमभिषेक गोरसेन च। अगरतगरकर्पूरादिक मध्वान्नं फल पयार्पणं। तदान्ते जलार्पणं तत्रान्ते च नीराजनम्‌। अपराधाय क्षमायाचना तत्प्रसादांगीयताम्‌। हर हर शिव ननादयित्वा हर कृपा खलु लब्धयेत्‌।'
किन्तु देखने में आया है कि प्रायः लोग पदार्थों को चढ़ाने का क्रम नहीं जानते हैं। तथा कुछ लोग हल्दी के बाद चन्दन तथा कुछ दही चढ़ाकर सिन्दूर चढ़ाने लगते हैं। वैसे तो भगवान शिव की चाहे जैसे पूजा करें, उन्हें शिवजी की कृपा प्राप्त होती है। किन्तु क्या सब्जी खाकर, दाल पीकर, तब चावल में रोटी मसल कर खा सकते हैं? या चावल खाकर, हाथ मुँह धोकर फिर सब्जी और चटनी खायी जाती है? कितना रुचिकर खाना होगा? या फिर कितना सुन्दर उसका पाचन शरीर में होगा?
उसी प्रकार पूजा के पदार्थों को चढ़ाने का एक निश्चित क्रम बताया गया है। उस क्रम से न चढाने पर प्रेम एवं विश्वास का फल भले भगवान शिव दे दें। किन्तु पूजा का कोई फल प्राप्त नहीं होता है। भगवान शिव सभी का कल्याण करें।

🙏सावन में शिव पूजा क्यों है फलदायी



🙏भगवान शिव के जीवन चरित्र में ज्ञान का सागर छिपा हुआ है। जब भगवान शिव की बारात गई, तब वे आमतौर पर घोड़ी पर सवार होने के बजाय बैल पर गए। इससे एक स्पष्ट ज्ञान मिलता है। दरअसल, घोड़ी सर्वाधिक कामुक जीव है। एक साधारण दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर जाता है तो उससे ज्ञान यह मिलता है कि दूल्हा काम वासना के वश में होने के लिए विवाह के लिए नहीं जा रहा है, बल्कि घोड़ी रूपी काम वासना को अपने वश में करने के लिए विवाह रूपी सुंदर बंधन में बंधने जा रहा है। भगवान शंकर ने काम का नाश किया था। काम उनके जीवन में महत्वहीन है। इसलिए वह घोड़ी के बजाय धर्म रूपी बैल पर सवार होकर गए। इससे यह शिक्षा मिलती है कि विवाह रूपी पवित्र बंधन नव दंपती को धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है। यह भी मान्यता है कि जिस परिवार में स्त्री और पुरुष भगवान शिव और पार्वती की तरह नेक व एक विचारों के होते हैं तो उनका घर स्वर्ग के समान अलौकिक हो जाता है। सावन में भगवान शंकर की पूजा अर्चना, व्रत और तप का विशेष महत्व इसलिए माना गया है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सावन में काम देव की सेना पूरी पृथ्वी पर वर्षा की बौछार, सुगंधित, मंद, शीतल, पवन, काम को जागृत करती है। इस माह में शिव की आराधना से काम का नाश होता है।

🙏शिव पूजा और पंचामृत


🙏गंगाजल, दूध, दही, शहद व घी को मिलाकर पंचामृत का निर्माण किया जाता है। शिव परिवार को पंचामृत अर्पण करने का भी विशेष महत्व है। पंचामृत में मौजूद सभी तत्वों का विशेष महत्व है।

🙏दूध : अक्सर यह देखा जाता है कि गाय का बछड़ा अगर मर जाता है तो जब तक गाय के पास अगर बछड़े के प्रारूप को न खड़ा किया जाए तो वह दूध नहीं देती है। यह वाकिया मोह का प्रतीक है।

🙏गंगा जल : अपने पिता की मुक्ति की कामना के लिए भगीरथ के पूर्वजों ने पीढ़ी दर पीढ़ी तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए गंगा जल को पृथ्वी पर लाने के लिए शिव से प्रार्थना की थी। गंगा जल मुक्ति दायिनी है और इसे मुक्ति के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है।

🙏शहद : मधु मक्खियां कण-कण भरने के लिए शहद संग्रह करती हैं। इसे लोभ का प्रतीक माना गया है।

🙏दही : दही की तासीर गर्म होती है, ये क्रोध का प्रतीक है।

🙏घी : जिसके घर में घी की अधिकता होती है, उसको इस बात का अहंकार होता है कि उसके घर दूध और घी की नदियां बहती हैं। यह अहंकार का प्रतीक है।

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जय भोले भंडारी की

🙏हर  हर महादेव 🙏


मन ही जीवन को जीने की अहम् भावना का नाम है, मन की कोई भोतिक सत्ता नहीं पर यह भोतिक सत्ता को पाने का परम हेतु है।
मन का वास ह्रदय आकाश में। मन के पूर्व में प्रकाशमय आत्मा का वास होता है। मन के उत्तर में चित्त की सत्ता। वस्तुत आत्म बिंदु मन व् चित्त के मद्य स्थित होता है। चित चेतन का केंद्र व् मन संसारिक प्रकाश का मूल। चित सन्देश वाहक है आत्मा व् मन के मद्य। मन बाहिरी तत्व से जुड़ा होता है। आत्मा भितरी सत्य से। चित के मध्यम से दोनों एक होकर कर्म को गति देते हैं। मन बाहिरी तत्वों का चित्त वृतियो द्वारा आत्मा को सन्देश पहुँचाता है। आत्मा के आदेश पर इन्द्रियों को कर्म हेतु प्रेरित करता है। मन की गति अंनत है, नियमित गति ही मन की शुद्धता की सूचक है, सत्य मय मन इन्द्रियों को सही दिशा देकर जीव को ब्रह्म से मिलाने का सामर्थ रखता है। मन की शुद्धि सत्य मय जीवन की अहम् बात है। जीविका व् अन्न मन को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं।

मन प्रतिस्थित मस्तिष्क नहीं।
मन में ही बुद्धि अधिष्ठित होती है।
संकल्प का उदगम स्थान मन है, मस्तिष्क  नहीं।
मन कभी जीर्ण नहीं होता - मन अजर है।
संकल्प मन की अद्रितीय शक्ति है।

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🙏 ॐ नमः शिवाय 🙏
♨प्रभु शरणम् परिवार♨


पौराणिक मान्यताओ के विपरीत पूर्ण खण्डित गोतमेश्वर महादेव की होती है पूजा
रतलाम से लगभग सौ किमी दूर राजस्थान सीमा मे अरनोद नामक स्थान पर एक ऐसा अति प्राचीन धार्मिक स्थल है जिसके बारे मे बहुत कम लोग जानते है। वह है गौतमेश्वर महादेव का मदिर | हिन्दू धर्म शास्त्रो मे खण्डित देवी देवताओ की प्रतिमाओं, खंडित शिवलिंगों एवं तस्वीरों का पूजन वर्जित माना गया है पौराणिक मान्यताओं के अनुसार खंडित देवी देवताओं की प्रतिमाओं को विसर्जित कर प्रथा है | किन्तु संभवतः विश्व मे एक मात्र ऐसी जगह सिर्फ गौतमेश्वर महादेव है जिनके दो भागों मे विभाजित एवं पूर्ण रुप से खण्डित शिवलिंग की पूजा अर्चना होती है आराधना होती है। दूर दूर से यहाँ भक्तों का तांता लगा रहता है | इस पूजा अर्चना के पीछे छिपे तथ्यो एवं रोचक जानकारी को जानने के पहले हम आपकों बताना चाहेंगे कि राजस्थान की सीमा मे प्रतापगढ रोड पर खतरनाक घाटीयों में लगभग एक हजार से ग्यारह सो फीट नीचे, सुरम्य प्राकृतिक हरीयाली के बीच विराजित हैं, गौतमेश्वर महादेव | इस मंदिर के बारे मे मान्यता है कि गौहत्या के साथ अन्य जीव हत्या का पाप लगने पर यदि समाज द्वारा किसी व्यक्ति को समाज या जाति से अलग कर दिया जाता है तो यहां स्थित मोक्षदायीनी कुण्ड मे स्नान करने के पश्चात उस व्यक्ति को मंदिर के पुजारी द्वारा पाप मुक्ति का प्रमाण पत्र दिया जाता है क्योंकि सप्तऋषियों में से एक गौतम ऋषी पर लगा गौहत्या का कलंक भी यही मिटा था। यह भी मान्यता है कि इस कुण्ड मे स्नान करने पर यदि आपके शरीर से लाल पानी टपके तो मान लें कि आपके पाप धुल गये है |
क्या है गोतमेश्वर महादेव का इतिहास और क्या है खण्डित शिवलिंग से जुडी कथा :- वेसे तो गोतमेश्वर महादेव के साथ कई कहानियां जुडी हुई है सप्तऋषियों मे एक ऋषी गौतम ऋषी थे, उन्हे वरदान था कि वे कभी किसी को भूखा नही मरने देंगे। एक बार नासिक त्र्यंबकेश्वर मे घनघोर अकाल पडा इस दौरान 88 हजार के करीब साधु संतो को भोजन कराने की जबाबदारी गौतम ऋषी पर आयी वे एक मुठ्ठी अनाज रोज उगाते और उससे साधु संतो सहित पूरे क्षेत्र के लोगो का पेट भरने योग्य अन्न उत्पन्न हो जाता था, यह अकाल 12 साल तक चला तत्पश्चात वहां पर बारीश हुई और खुशहाली छा गई। एक समय सभी साधु संतो ने वहां से जाने का मन बनाया किंतु वे गौतम ऋषी को छोडकर जाये तो केसे जाये गौतम ऋषी ने उनकी मंशा के समझते हुए एक मायावी गाय की रचना की और उसे लहलहाते खेतों मे छोड दिया सुबह जब गाय फसलों को नष्ट करते हुए विचर रही थी तब गौतम ऋषी ने एक कंकर उठाकर उस गाय को मारा मायावी गाय तुरंत मर गई। तत्पश्चात गौतम ऋषी पर गौहत्या का पाप लगा और यह आरोप लगाते हुए सभी साधु संत वहां से चले गये। गौतम ऋषी गौहत्या के कलंक को लेकर पूर्व से पश्चिम इस स्थान पर आये यहां पर उन्होने घनघोर तपस्या की और जब शिवजी प्रकट हुए तो उन्होने उनसे वरदान मांगा कि उन पर लगा गौहत्या का पाप तो हटे ही साथ ही भोलेनाथ स्वयं यहां पर विराजित हो जाएँ और पापियों को मोक्ष प्रदान करें । जिसके बाद भगवान् शंकर यहां पर विराजित हुए और गोतमेश्वर के नाम से जाने गये। गौतम ऋषी पर गौहत्या के पाप के चलते यह शाप था कि वे सूर्य को नही देख पाते थे भोलेनाथ के आर्शीवाद से यहां एक मोक्षदायी कुण्ड उत्पन्न हुआ जिसमें स्नान करते ही गौतम ऋषी पर लगा गौहत्या का कलंक धुल गया और आकाश मे से उन्हे सूर्य की रोशनी दिखाई देने लगी और उनको दिखने वाला अंधेरा वहां से हट गया। तभी से इस स्थान गौतमेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा और तभी से यहाँ विशेष् रुप से पूजा अर्चना की जाती है |
प्राचीनकाल की परम्पराओं के अनुसार गौह्त्या के दोषियों को धर्म, जात और समाज से बेदखल कर दिया जाता था | और यदि गौहत्या का दोषी यहाँ के कुण्ड में स्नान कर लेते तो उन्हें समाज में पुनः स्थान मिल जाता | इन्ही पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज भी सैकडों लोग यहां अपने पापों को धोकर मोक्ष प्राप्ति की कामना के लिए आते है आज भी गौहत्या सहित जीव हत्या आदि के आरोपों से मुक्ति के लिए दर्शनार्थियों को यहाँ स्थित कुण्ड मे स्नान के पश्चात एक प्रमाण पत्र दिया जाता है जो इस बात का प्रमाण होता है कि वे पापमुक्त हो गये है इसके अलावा चट्टानों मे स्थापित गोतमेश्वर महादेव का गुम्बदनुमा शिखर है जिसे गदा कहा जाता है और ऐसी मान्यता है कि इस गदा के चारों और लोट लगाने से सभी असाध्य रोग ठीक हो जाते है।
क्या है खण्डित शिवलिंग की कहानी :- मोहम्मद गजनबी जब सभी हिन्दू मंदिरों पर आक्रमण करते हुए यहां पहुंचा तो उसने गोतमेश्वर महादेव शिवलिंग को भी खंडित करने का प्रयास किया । प्राचीन कथाओं के अनुसार शिवलिंग पर प्रहार करने पर भोलेनाथ ने अपना चमत्कार दिखाने के लिए पहले तो शिवलिंग से दूध की धारा छोडी, दुसरे प्रहार पर उसमे से दही की धारा निकली और जब गजनवी ने तीसरा प्रहार शिवलिंग पर किया तो भोलेनाथ क्रुध हो गये इसके पश्चात शिवलिंग से एक आंधी की तरह मधुमखियों का झुंड निकला जिसने गजनवी सहित उसकी पुरी सेना को परास्त किया। यहां पर गजनवी ने भोले की शक्ति का स्वीकारते हुए शीश नवाया मंदिर का पुन: निर्माण करवाया और एक शिलालेख भी लगाया कि यदि कोई मुसलमान हमला करेगा या बुरी नजर से देखेगा तो वह सुअर की हत्या का दोषी होगा, इसी प्रकार यदि कोई हिन्दू इस मंदिर पर बुरी नजर डालेगा या नुकसान पहुंचाने की कोशीश करेगा तो वह गौहत्या का भागी बनेगा। आज भी यह शिलालेख यहाँ मौजूद है और उस पर सुअर तथा गाय का चित्र भी बना हुआ है।

✨शिव पुराण ✨

कण्णप्प की भक्ति

 भील कुमार कण्णप्प वन में भटकते-भटकते एक मंदिर के समीप पहुंचा। मंदिर में भगवान शंकर की मूर्ति देख उसने सोचा- भगवान इस वन में अकेले हैं। कहीं कोई पशु इन्हें कष्ट न दे। शाम हो गई थी। कण्णप्प धनुष पर बाण चढ़ाकर मंदिर के द्वार पर पहरा देने लगा। सवेरा होने पर उसे भगवान की पूजा करने का विचार आया किंतु वह पूजा करने का तरीका नहीं जानता था। 

 वह वन में गया, पशु मारे और आग में उनका मांस भून लिया। मधुमक्खियों का छत्ता तोड़कर शहद निकाला। एक दोने में शहद और मांस लेकर कुछ पुष्प तोड़कर और नदी का जल मुंह में भरकर मंदिर पहुंचा। मूर्ति पर पड़े फूल-पत्तों को उसने पैर से हटाया। मुंह से ही मूर्ति पर जल चढ़ाया, फूल चढ़ाए और मांस व शहद नैवेद्य के रूप में रख दिया। 

 उस मंदिर में रोज सुबह एक ब्राहमण पूजा करने आता था। मंदिर में नित्य ही मांस के टुकड़े देख ब्राहमण दुखी होता। एक दिन वह छिपकर यह देखने बैठा कि यह करता कौन है? उसने देखा कण्णप्प आया। उस समय मूर्ति के एक नेत्र से रक्त बहता देख उसने पत्तों की औषधि मूर्ति के नेत्र पर लगाई, किंतु रक्त बंद नहीं हुआ। 

 तब कण्णप्प ने अपना नेत्र तीर से निकालकर मूर्ति के नेत्र पर रखा। रक्त बंद हो गया। तभी दूसरे नेत्र से रक्त बहने लगा। कण्णप्प ने दूसरा नेत्र भी अर्पित कर दिया। तभी शंकरजी प्रकट हुए और कण्णप्प को हृदय से लगाते हुए उसकी नेत्रज्योति लौटा दी और ब्राहमण से कहा- मुझे पूजा पद्धति नहीं, श्रद्धापूर्ण भाव ही प्रिय है। 

 वस्तुत: ईश्वर पूर्ण समर्पण के साथ किए स्मरण मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं और मंगल आशीषों से भक्त को तार देते हैं।

🙏 ॐ नमः शिवाय 🙏

सावन के महीनों में नहीं करने चाहिए ये 10 काम 
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हिन्दी पंचांग के सभी बारह महीनों में श्रावण मास का विशेष महत्व माना जाता है, क्योंकि ये शिवजी की भक्ति का महीना है। श्रावण मास को सावन माह भी कहते है। मान्यता है कि जो लोग इस माह में शिवजी की पूजा करते हैं, उनके सभी दुख दूर हो जाते हैं। कार्यों में आ रही मुश्किलें खत्म हो जाती हैं और देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त होती है। इसी वजह से देशभर के सभी शिव मंदिरों में भक्तों की भीड़ लगी रहेगी। ये भक्ति का महीना है, इस कारण इन दिनों के लिए शास्त्रों में कुछ ऐसे काम बताए गए हैं जो हमें नहीं करना चाहिए। जो लोग ये काम करते हैं, उन्हें शिवजी की कृपा प्राप्त नहीं हो पाती है और परेशानियां बनी रहती हैं। यहां जानिए 10 ऐसे काम जो सावन माह में नहीं करना चाहीए
👉 शिवलिंग पर न चढ़ाएं हल्दी
शिवजी की पूजा करते समय ध्यान रखें कि शिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ानी चाहिए। हल्दी जलाधारी पर चढ़ानी चाहिए। हल्दी स्त्री से संबंधित वस्तु है। शिवलिंग पुरुष तत्व से संबंधित है और ये शिवजी का प्रतीक है। इस कारण शिवलिंग पर नहीं, बल्कि जलाधारी पर हल्दी चढ़ानी चाहिए। जलाधारी स्त्री तत्व से संबंधित है और ये माता पार्वती की प्रतीक है।

ज्योतिषगुरू निलेशदास
09828765108
8875294629
👉 दूध के सेवन से रखें परहेज सावन में संभव हो तो दूध का सेवन न करें। यही बात बताने के लिए सावन में शिव जी का दूध से अभिषेक करने की परंपरा शुरू हुई होगी। वैज्ञानिक मत के अनुसार इन दिनों दूध वात बढ़ाने का काम करता है। अगर दूध का सेवन करना हो तब खूब उबालकर प्रयोग में लाएं। कच्चा दूध प्रयोग में नहीं लाएं। सावन में दूध से दही बनाकर सेवन कर सकते हैं। लेकिन भाद्र मास में दही से परहेज रखना चाहिए क्योंकि भाद्र मास में दही सेहत के लिए हानिकारक होता है।
अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
Www.fb.com/pandit1008ns
👉 सावन में हरी पत्तेदार सब्जी (साग)  खाना है वर्जित
स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सावन में कुछ चीजों को खाना वर्जित बताया गया है। ऐसी चीजों में पहला नाम साग का आता है। जबकि साग को सेहत के लिए गुणकारी माना गया है। लेकिन सावन में साग में वात बढ़ाने वाले तत्व की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए साग गुणकारी नहीं रह जाता है। यही कारण है कि सावन में साग खाना वर्जित माना गया है। दूसरा कारण यह भी है कि इन दिनों कीट पतंगों की संख्या बढ़ जाती है और साग के साथ घास-फूस भी उग आते हैं जो सेहत के लिए हानिकाक होते हैं। साग के साथ मिलकर हानिकारक तत्व हमारे शरीर में नहीं पहुंचे इसलिए सावन में साग खाने की मनाही की गई।
ज्योतिषगुरू निलेशदास
09828765108
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👉 सावन में बैंगन खाना भी वर्जित माना गया है
सावन में महीने में साग के बाद बैंगन भी ऐसी सब्जी है जिसे खाना वर्जित माना गया है। इसका धार्मिक कारण यह है कि बैंगन को शास्त्रों में अशुद्घ कहा गया है। यही वजह है कि कार्तिक महीने में भी कार्तिक मास का व्रत रखने वाले व्यक्ति बैंगन नहीं खाते हैं। वैज्ञानिक कारण यह है कि सावन में बैंगन में कीड़े अधिक लगते हैं। ऐसे में बैंगन का स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए सावन में बैंगन खाने की मनाही है।
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👉 बुरे विचारों से बचें
सावन माह में किसी भी प्रकार के बुरे विचार से बचना चाहिए। बुरे विचार जैसे दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिए योजना बनाना, अधार्मिक काम करने के लिए सोचना, स्त्रियों के लिए गलत सोचना आदि। इस प्रकार के विचारों से बचना चाहिए, अन्यथा शिवजी की पूजा में मन नहीं लग पाएगा। मन बेकार की बातों में ही उलझा रहेगा। शास्त्रों में स्त्रियों के लिए गलत बातें सोचना महापाप बताया गया है। सावन माह में अच्छे साहित्य या धर्म संबंधी किताबों का अध्ययन करना चाहिए, इससे बुरे विचार दूर हो सकते हैं।
ज्योतिषगुरू निलेशदास
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👉  इन लोगों का अपमान न करें
सावन माह में इस बात का ध्यान रखें कि बुजुर्ग व्यक्ति, गुरु, भाई-बहन, जीवन साथी, माता-पिता, मित्र और ज्ञानी लोगों का अपमान न करें। शिवजी के माह में इस बात का पालन जरूर होना चाहिए, अन्यथा शिवजी की कृपा प्राप्त नहीं हो पाती है। शिवजी ऐसे लोगों से प्रसन्न नहीं होते हैं जो यहां बताए गए लोगों का अपमान करते हैं। ये सभी लोग हर स्थिति में सम्मान के पात्र हैं, हमेशा इनका सम्मान करें।

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👉 सुबह देर तक नहीं सोना चाहिए
पूजा के लिए सुबह-सुबह का समय सबसे अच्छा रहता है, इस कारण यदि आप शिवजी की कृपा पाना चाहते हैं तो सुबह बिस्तर जल्दी छोड़ देना चाहिए। जल्दी जागें और स्नान आदि कार्यों के बाद शिवजी की पूजा करें। यदि देर तक सोते रहेंगे तो इससे आलस्य बढ़ेगा। सुबह जल्दी उठने से वातावरण से स्वास्थ्य लाभ भी मिलते हैं। सुबह के समय मन शांत रहता है और इस वजह से पूजा पूरी एकाग्रता से हो पाती है। एकाग्रता से की गई पूजा बहुत जल्दी शुभ फल प्रदान करती है।
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👉 मांसाहार से बचें
सावन माह में मांसाहार यानी नॉनवेज खाने से बचना चाहिए। नॉनवेज खाना बनाने के लिए जीव हत्या की जाती है। जीव हत्या पाप है। मांसाहार को छोड़कर इस पाप से बचें। सावन में वर्षा ऋतु रहती है और आसमान में बादल छाए रहते हैं, इस कारण कई बार सूर्य और चंद्रमा दिखाई नहीं देते हैं। सूर्य और चंद्र की रोशनी हम तक नहीं पहुंचती है तो हमारी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। इन दोनों ग्रहों की रोशनी से पाचन शक्ति मजबूत होती है। नॉनवेज खाने को पचाने के लिए पाचन शक्ति मजबूत होना जरूरी है। यदि ये खाना ठीक से पचेगा नहीं तो स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हो सकती हैं।
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👉 पति-पत्नी ध्यान रखें ये बातें
अधिकतर परिवारों में पति-पत्नी के बीच वाद-विवाद, छोटी-छोटी लड़ाइयां अक्सर होती रहती हैं। ये आम बात है, लेकिन जब छोटी-छोटी बातें बढ़ जाती हैं तो पूरा घर अशांत हो जाता है। सावन माह में इस बात का विशेष ध्यान रखें कि घर में क्लेश ना हो। जिन घरों में क्लेश होता है, अशांति रहती है, वहां देवी-देवता निवास नहीं करते हैं। सावन माह में शिवजी की कृपा चाहते हैं तो घर में प्रेम बनाए रखें और एक-दूसरे की गलतियों को भूलकर आगे बढ़ें। घर में शांति रहेगी तो जीवन भी सुखद बना रहेगा। मन प्रसन्न रहेगा। प्रसन्न मन से पूजा करेंगे तो मनोकामनाएं भी जल्दी पूरी हो सकती हैं।

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👉 क्रोध न करें
क्रोध से मन की एकाग्रता और सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो जाती है। इस आवेश में लिए गए फैसले भी अधिकतर नुकसानदायक ही होते हैं। ये एक बुराई है और इससे बचना चाहिए। शिवजी के कृपा पाने के लिए खुद को शांत रखना बहुत जरूरी है। क्रोध से मन अशांत हो जाता है और ऐसे में पूजा नहीं की जा सकती है।। ऐसी ही लेखों को पढ़ने के लिए किलक करे
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शिवजी को शंख से जल क्यों नहीं चढ़ाते

 - दैत्यराज दंभ ने श्रीहरि को प्रसन्नकर उनके समान बलवान पुत्र शंखचूड़ प्राप्त किया. आरंभ में शंखचूड़ धर्मवान था. उसने पुष्कर में तप से ब्रह्माजी को प्रसन्न किया व देवताओं से अजेय होने का वर मांगा. ब्रह्माजी ने मनचाहे वर के साथ नारायण कवच भी प्रदान किया. 

शंखचूड का विवाह साध्वी तुलसी से हुआ. श्रीहरि के आशीर्वाद से जन्मे व ब्रह्मा से वरदान प्राप्त शंखचूड ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया. त्रस्त देवता श्रीहरि की शरण में गए. प्रभु बोले- शंखचूड़ मेरे वरदान से जन्मा है. उसका अंत केवल महादेव ही कर सकते हैं. देवों ने महादेव को कष्ट और श्रीहरि का आदेश बताया तो शिवजी उसके अंत को तैयार हो गए. शिवजी और शंखचूड़ के बीच युद्ध शुरू हुआ. 

नारायण कवच के अलावा पत्नी तुलसी ने पतिव्रत के प्रभाव से शंखचूड़ को अभेद्य कवच से युक्त कर दिया. महादेव हजारों वर्षों के युद्ध के बाद भी उसका वध नहीं कर पा रहे थे. देवों ने श्रीहरि से शंखचूड़ वध की राह निकालने को कहा. श्रीहरि ब्राह्मण रूप धरकर गए और शंखचूड से नारायण कवच दान में मांग लिया.

तुलसी का पतिव्रत कवच भेदना था. श्रीहरि ने शंखचूड़ का ही रूप धरा और तुलसी के पास पहुंचे. वर्षों बाद पति को देख प्रसन्न तुलसी ने पत्नी समान प्रेम किया. इससे तुलसी का पतिव्रत व कवच दोनों खंडित हो गए तो महादेव ने त्रिशूल प्रहार से शंखचूड़ का वध कर दिया. प्रहार से नारायण के समान बलशाली शंखचूड की अस्थियां चूर हुईं तो शंख का जन्म हुआ.

शंखचूड़ विष्णु भक्त था इसलिए श्रीहरि को शंख से जल चढ़ाने का विधान है पर महादेव ने उसका वध किया था अतः शंख से शिवजी को जल नहीं चढ़ाया जाता.

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08/08/2015, 18:50 - ‪+91 90132 83008‬: 🙏ॐ महादेव  शिव शम्भु 🙏

🙏सावन में शिव पूजा क्यों है फलदायी



🙏भगवान शिव के जीवन चरित्र में ज्ञान का सागर छिपा हुआ है। जब भगवान शिव की बारात गई, तब वे आमतौर पर घोड़ी पर सवार होने के बजाय बैल पर गए। इससे एक स्पष्ट ज्ञान मिलता है। दरअसल, घोड़ी सर्वाधिक कामुक जीव है। एक साधारण दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर जाता है तो उससे ज्ञान यह मिलता है कि दूल्हा काम वासना के वश में होने के लिए विवाह के लिए नहीं जा रहा है, बल्कि घोड़ी रूपी काम वासना को अपने वश में करने के लिए विवाह रूपी सुंदर बंधन में बंधने जा रहा है। भगवान शंकर ने काम का नाश किया था। काम उनके जीवन में महत्वहीन है। इसलिए वह घोड़ी के बजाय धर्म रूपी बैल पर सवार होकर गए। इससे यह शिक्षा मिलती है कि विवाह रूपी पवित्र बंधन नव दंपती को धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है। यह भी मान्यता है कि जिस परिवार में स्त्री और पुरुष भगवान शिव और पार्वती की तरह नेक व एक विचारों के होते हैं तो उनका घर स्वर्ग के समान अलौकिक हो जाता है। सावन में भगवान शंकर की पूजा अर्चना, व्रत और तप का विशेष महत्व इसलिए माना गया है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सावन में काम देव की सेना पूरी पृथ्वी पर वर्षा की बौछार, सुगंधित, मंद, शीतल, पवन, काम को जागृत करती है। इस माह में शिव की आराधना से काम का नाश होता है।

🙏शिव पूजा और पंचामृत


🙏गंगाजल, दूध, दही, शहद व घी को मिलाकर पंचामृत का निर्माण किया जाता है। शिव परिवार को पंचामृत अर्पण करने का भी विशेष महत्व है। पंचामृत में मौजूद सभी तत्वों का विशेष महत्व है।

🙏दूध : अक्सर यह देखा जाता है कि गाय का बछड़ा अगर मर जाता है तो जब तक गाय के पास अगर बछड़े के प्रारूप को न खड़ा किया जाए तो वह दूध नहीं देती है। यह वाकिया मोह का प्रतीक है।

🙏गंगा जल : अपने पिता की मुक्ति की कामना के लिए भगीरथ के पूर्वजों ने पीढ़ी दर पीढ़ी तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए गंगा जल को पृथ्वी पर लाने के लिए शिव से प्रार्थना की थी। गंगा जल मुक्ति दायिनी है और इसे मुक्ति के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है।

🙏शहद : मधु मक्खियां कण-कण भरने के लिए शहद संग्रह करती हैं। इसे लोभ का प्रतीक माना गया है।

🙏दही : दही की तासीर गर्म होती है, ये क्रोध का प्रतीक है।

🙏घी : जिसके घर में घी की अधिकता होती है, उसको इस बात का अहंकार होता है कि उसके घर दूध और घी की नदियां बहती हैं। यह अहंकार का प्रतीक है।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

जय भोले भंडारी की 

🙏हर  हर महादेव 🙏


💥शिव पुराण 💥

शिव का रौद्र रूप है वीरभद्र

 यह अवतार तब हुआ था जब ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन भगवान शिव को उसमें नहीं बुलाया। जबकि दक्ष की पुत्री सती का विवाह शिव से हुआ था। यज्ञ की बात ज्ञात होने पर सती ने भी वहां चलने को कहा लेकिन शिव ने बिना आमंत्रण के जाने से मना कर दिया। फिर भी सती जिद कर अकेली ही वहां चली गई। अपने पिता के घर जब उन्होंने शिव का और स्वयं का अपमान अनुभव किया तो उन्हें क्रोध भी हुआ और उन्होंने यज्ञवेदी में कूदकर अपनी देह त्याग दी। जब भगवान शिव को यह पता हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। 

 शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है- 

 क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्व ह्लिस टोग्ररोचिषम्। 

 उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥ 

 ततोऽतिकाय स्तनुवा स्पृशन्दिवं। 

 अर्थात सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। सहसा खड़े होकर उन्होंने गंभीर अठ्ठाहस के साथ जटा को पृथ्वी पर पटक दिया। इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रगट हुए। 

 भगवान शिव के वीरभद्र अवतार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह अवतार हमें संदेश देता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करें जहां उसका सदुपयोग हो। वीरों के दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर।

 राम, अर्जुन और भीम वीर थे। रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे लेकिन पहला भद्र (सभ्य) वीर वर्ग और दूसरा अभद्र (असभ्य) वीर वर्ग है। सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा नि:सहायों की सहायता करना। वहीं असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा नि:शक


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08/08/2015, 19:58 - Prabhu Sharanam: सावन में क्यों होती है शिवजी की विशेष पूजा

 - भगवान शिव के जीवन में ज्ञान का सागर छिपा है. शिवजी विवाह के लिए बैल पर सवार होकर गए. पंचामृत उनका प्रिय प्रसाद है.इन दोनों के महत्व को समझेंगे.

आमजन विवाह के लिए घोड़ी पर जाते हैं. घोड़ी सर्वाधिक कामुक जीव है. उसपर सवार होकर जाने में संदेश है कि दूल्हा काम के वश में होने के लिए नहीं बल्कि घोड़ी रूपी कामवासना को अपने वश में करने के लिए विवाह बंधन में बंधने जा रहा है. 

शिवजी ने काम को भस्म किया था. काम उनके जीवन में महत्वहीन है. इसलिए वह विवाह के लिए धर्म रूपी बैल पर सवार होकर गए. इससे शिक्षा मिलती है कि विवाह का पवित्र बंधन नवदंपती को धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है. 

सावन में कामदेव की सेना वर्षा की बौछारें व सुगंधित पवन कामवासना जागृत करती है. सावन में शिव की पूजा का विशेष महत्व इसलिए हो जाता हैं क्योंकि शिव काम की प्रबलता का नाश करके पतन से बचाते हैं.

शिवजी को चढ़ने वाले पंचामृत में भी एक गूढ़ संदेश है. पंचामृत दूध, दही, शहद व घी को गंगाजल में मिलाकर बनता है. 

दूधः जब तक बछड़ा पास न हो गाय दूध नहीं देती. बछड़ा मर जाए तो उसका प्रारूप खड़ा किए बिना दूध नहीं देती. दूध मोह का प्रतीक है.

शहदः मधुमक्खी कण-कण भरने के लिए शहद संग्रह करती है. इसे लोभ का प्रतीक माना गया है. 

दहीः इसका तासीर गर्म होता है.क्रोध का प्रतीक है. 

घीः यह समृद्धि के साथ आने वाला है और अहंकार का प्रतीक है. 

गंगाजलः भगीरथ के पूर्वजों ने पितरों की मुक्ति के लिए शिवजी की उपासना की और गंगाजल को पृथ्वी पर लेकर आए. यह मुक्ति का प्रतीक है. गंगाजल मोह, लोभ, क्रोध और अहंकार को समेटकर शांत करता है. 

संकलनः नीलम शर्मा

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08/08/2015, 20:50 - ‪+91 78000 91358‬: भगबान शंकर की शिव लिंग क्या है और जोतिर्लिंग का रहस्य !! आमतौर पर शिवलिंग को गलत अर्थों में लिया जाता है, जो कि अनुचित है या उचित यह हम नहीं जानते। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है।वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। यही सबका आधार है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना की जाती है। ब्रह्मांड का प्रतीक ज्योतिर्लिंग := शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है, कुछ लोग इसे यौनांगों के अर्थ में लेते हैं और उन लोगों ने शिव की इसी रूप में पूजा की और उनके बड़े-बड़े पंथ भी बन गए हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने धर्म को सही अर्थों में नहीं समझा और अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म को अपने सांचे में ढाला। शिवलिंग का अर्थ है भगवान शिव का आदि-अनादी स्वरूप। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही लिंग है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, उर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ लिंग आदि। लेकिन बौद्धकाल में धर्म और धर्मग्रंथों के बिगाड़ के चलते लिंग को गलत अर्थों में लिया जाने लगा जो कि आज तक प्रचलन में है। ज्योतिर्लिंग := ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के 12 खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। आसमानी पत्थर := ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां ये पिंड गिरे, वहां-वहां इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे 108 ज्योतिर्लिंग। शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। हजारों पिंडों में से प्रमुख 12 पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया। हालांकि कुछ ऐसे भी ज्योतिर्लिंग हैं जिनका निर्माण स्वयं भगवान ने किया। गौरतलब है कि हिन्दू धर्म में मूर्ति की पूजा नहीं होती, लेकिन शिवलिंग और शालिग्राम को भगवान का विग्रह रूप माना जाता है और पुराणों के अनुसार भगवान के इस विग्रह रूप की ही पूजा की जानी चाहिए। शिवलिंग जहां भगवान शंकर का प्रतीक है तो शालिग्राम भगवान विष्णु का। शिव' का अर्थ है :- 'परम कल्याणकारी शुभ' और 'लिंग' का अर्थ है- 'सृजन ज्योति'। वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है। 1- मन, 2- बुद्धि, 3- पांच ज्ञानेन्द्रियां, 4- पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु। भ्रकुटी के बीच स्थित हमारी आत्मा या कहें कि हम स्वयं भी इसी तरह है। बिंदु रूप। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं। केवल लिंग की पूजा करने मात्र से समस्त देवी देवताओं की पूजा हो जाती है। लिंग पूजन परमात्मा के प्रमाण स्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन है। शिव पुराण में शिवलिंग की पूजा के विषय में जो तथ्य मिलता है वह तथ्य इस कथा से अलग है। शिव पुराण में शिव को संसार की उत्पत्ति का कारण और परब्रह्म कहा गया है। इस पुराण के अनुसार भगवान शिव ही पूर्ण पुरूष और निराकार ब्रह्म हैं। इसी के प्रतीकात्मक रूप में शिव के लिंग की पूजा की जाती है। भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग (ज्योति) प्रकट किया था। इस लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी समय से शिव के परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई।

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08/08/2015, 22:18 - ‪+91 88998 28899‬: 💥 शिव विद्या【तत्व ज्ञान का महत्व】💥

परमात्मा न चक्षुओ का विषय है और न ही मन का। पर तत्व ज्ञान के साधन से मन स्थिर होने पर जो गति प्राप्त होती है, वहाँ परमात्मा अपने मूल स्वरूप में प्रगट होकर जीव को वह स्थिति देता है। जिससे जीव उसका अवलोकन व् अनुभव कर गोरवान्वित होता है। यह स्थिति परमानन्द की अनुभूति के सामान है।

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08/08/2015, 22:24 - Prabhu Sharanam: दो घडी धर्म की

एक नगर में एक धनवान सेठ रहता था। अपने व्यापार के सिलसिले में उसका बाहर आना-जाना लगा रहता था। एक बार वह परदेस से लौट रहा था। साथ में धन था, इसलिए तीन-चार पहरेदार भी साथ ले लिए।  लेकिन जब वह अपने नगर के नजदीक पहुंचा, तो सोचा कि अब क्या डर।  इन पहरेदारों को यदि घर ले जाऊंगा तो भोजन कराना पडेगा।  अच्छा होगा, यहीं से विदा कर दूं।  उसने पहरेदारों को वापस भेज दिया।

दुर्भाग्य देखिए कि वह कुछ ही कदम आगे बढा कि अचानक डाकुओं ने उसे घेर लिया। डाकुओं को देखकर सेठ का कलेजा हाथ में आ गया। सोचने लगा, ऐसा अंदेशा होता तो पहरेदारों को क्यों छोडता?  आज तो बिना मौत मरना पडेगा। 

 डाकू सेठ से उसका माल-असबाब छीनने लगे। तभी उन डाकुओं में से दो को सेठ ने पहचान लिया। वे दोनों कभी सेठ की दुकान पर काम कर चुके थे। उनका नाम लेकर सेठ बोला, अरे ! तुम फलां-फलां हो क्या?  अपना नाम सुन कर उन दोनों ने भी सेठ को ध्यानपूर्वक देखा। उन्होंने भी सेठ को पहचान लिया।  

उन्हें लगा, इनके यहां पहले नौकरी की थी, इनका नमक खाया है।  इनको लूटना ठीक नहीं है। उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा, भाई इन्हें मत लूटो, ये हमारे पुराने सेठ जी हैं। यह सुनकर डाकुओं ने सेठ को लूटना बंद कर दिया। दोनों डाकुओं ने कहा, सेठ जी, अब आप आराम से घर जाइए, आप पर कोई हाथ नही डालेगा। 

सेठ सुरक्षित घर पहुंच गया। लेकिन मन ही मन सोचने लगा, दो लोगों की पहचान से साठ डाकुओं का खतरा टल गया। धन भी बच गया, जान भी बच गई।
"एक रात और दिन में भी साठ घडी होती हैं, अगर दो घडी भी अच्छे काम किए जाएं, तो अठावन घडियों का दुष्प्रभाव दूर हो सकता है। इसलिए अठावन घडी कर्म की और दो घडी धर्म की।" दो घडी धर्म की भी जीवन को कई मुसीबतों से बचा सकती है।

इस कथा को ध्यान में रखते हुए रोज की कम से कम दो घडी भले कार्य और धर्म के लिए समर्पित करके देखिए, अलग अनुभूति होगी।

इसी कार्य के लिए तो है प्रभु शरणं
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08/08/2015, 22:26 - ‪+91 78000 91358‬: 🌺🌺ज्वालामुखी का चमत्कारी शाबर मन्त्र🌺🌺 
---मायाचरी नाथ के साथ ,, रिद्ध सिद्ध तुम्हारे हाथ ,,,भरो भरो भण्डार ,,काया सुखी स्फुरो मन्त्र ज्वालामुखी !!!!
    🌺🌺 विधि--- रात्रि में इष्टदेवी / या --- कुल देवी की पूजा कर -( एक दीपक प्रज्ज्वलित करके) उक्त मन्त्र का नित्य ३/५/७ या ११ माला का जप करना चाहिए ! माला रूद्राक्ष व रक्तासन हो ! दिशा उत्तर ! साधना किसी को बताए नही ! जप कर्ता को शुभ स्वप्न आएँगे ,, स्वप्न में गुप्त विद्या मन्त्र की प्राप्ति सम्भव है ! गृह में अन्नपूर्णा का भण्डार होगा व शरीर स्वस्थ रहेगा ! नित्य कुछ ना कुछ भेंट कुमारी को दीजिए ---- उसकी प्रसन्नता हेतु 😊🌺🌺
08/08/2015, 23:13 - Prabhu Sharanam: शास्त्रों में कुछ नियम और मर्यादाये कही गई है जिनका यदि हम थोडा भी पालन करे तो जीवन में आने वाली छोटी-छोटी परेशानियो से हम बच सकते है तो आईये जाने ये बाते - 

1. - जिसका कुल और स्वभाव नहीं जाना है, उसको घर में कभी न ठहराना चाहिए. 

2. - लोभी जिस धन को धरती में अधिक नीचे गाड़ता है, वह धन पाताल में जाने के लिए पहले से ही मार्ग कर लेता है.और जो मनुष्य अपने सुख को रोक कर धनसंचय करने की इच्छा करता है, वह दूसरों के लिए बोझ ढ़ोने वाले मजदूर के समान क्लेश ही भोगने वाला है. 

3. अनुपयोगी धन की गति - जो मनुष्य धन को देवता के, ब्राह्मण के तथा भाई बंधु के काम में नहीं लाता है, उस कृपण का धन तो जल जाता है,या चोर चुरा ले जाते हैं, अथवा राजा छीन लेता है.संचय नित्य करना चाहिये, पर अति संचय करना योग्य नहीं है.
4. ये चार बातें दुनिया में दुर्लभ - प्रिय वाणी के सहित दान, अहंकाररहित ज्ञान, क्षमायुक्त शूरता, और दानयुक्त धन, हैं.

5. जहाँ ये चार न हो - ॠण देने वाला, वैद्य, वेदपाठी और सुंदर जल से भरी नदी, ये चारों न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिए.

6. इनके साथ मेल न करे - यह कहा है कि वैरी चाहे जितना मीठा बन कर मेल करे, परंतु उसके साथ मेल न करना चाहिये, क्योंकि पानी चाहे जितना भी गरम हो आग को बुझा ही देता है.दुर्जन विद्यावान भी हो, परंतु उसे छोड़ देना चाहिये, क्योंकि रत्न से शोभायमान सर्प क्या भयंकर नहीं होता है.
7.- इस संसार में अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को -निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता ये छः अवगुण छोड़ देने चाहिए.

8. छः प्रकार के मनुष्य हमेशा दुखी होते हैं- ईष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला, और पराये आसरे जीने वाला.

9. ये बहुत काल तक भी नहीं बिछड़ते हैं- अच्छी रीति से पका हुआ भोजन, विद्यावान पुत्र, सुशिक्षित अर्थात आज्ञाकारिणी स्त्री, अच्छे प्रकार से सेवा किया हुआ राजा, सोचकर कहा हुआ वचन, और विचार कर किया हुआ काम !!


रुद्राभिषेक : रूद्र अर्थात भूत भावन शिव का अभिषेक

शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

शिव को ही रुद्र कहा जाता है

क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं।

हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं।

रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे कुंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।

रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि-सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:अर्थात् :-


सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।

हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है।

साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं।

किसी खास मनोरथ कीपूर्ति के लिये तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक की जाती है।

रुद्राभिषेक के विभिन्न पूजन के लाभ इस प्रकार हैं-

• जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है।

• असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशोदक से रुद्राभिषेक करें।

• भवन-वाहन के लिए दही से रुद्राभिषेक करें।

• लक्ष्मी प्राप्ति के लिये गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।

• धन-वृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें।

• तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

• इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।

• पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।

• रुद्राभिषेक से योग्य तथा विद्वान संतान की प्राप्ति होती है।

• ज्वर की शांति हेतु शीतल जल/गंगाजल से रुद्राभिषेक करें।

• सहस्रनाम-मंत्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है।

• प्रमेह रोग की शांति भी दुग्धाभिषेक से हो जातीहै।

• शक्कर मिले दूध से अभिषेक करने पर जडबुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।

• सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है।

• शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है।

• पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें।

• गो दुग्ध से तथा शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।

• पुत्र की कामनावाले व्यक्ति शक्कर मिश्रित जल से अभिषेक करें।ऐसे तो अभिषेक साधारण रूप से जल से ही होता है।


परन्तु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों मंत्र गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है।

विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत सेभी अभिषेक किया जाता है।

तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।

इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत् अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत हीउत्तम फल देता है।

किन्तु यदि पारद के शिवलिंग काअभिषेक किया जाय तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है।

रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है।

वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है।

पुराणों में तो इससे सम्बंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।

वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में तो बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काट कर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था।

जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।

भष्मासुर ने शिव लिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओ से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया।

रुद्राभिषेक करने की तिथियांकृष्णपक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, द्वादशी, अमावस्या, शुक्लपक्ष की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथियों में अभिषेक करने से सुख-समृद्धि संतान प्राप्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

कालसर्प योग, गृहकलेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यो की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।

किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है और मनोवांछित फल प्राप्त होता है।

प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, अमावस्या तथा शुक्लपक्ष की द्वितीया व नवमी के दिन भगवान शिव माता गौरी के साथ होते हैं, इस तिथिमें रुद्राभिषेक करने से सुख-समृद्धि उपलब्ध होती है।


कृष्णपक्ष की चतुर्थी, एकादशी तथा शुक्लपक्ष की पंचमी व द्वादशी तिथियों में भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर होते हैं और उनकी अनुकंपा से परिवार मेंआनंद-मंगल होता है।


कृष्णपक्ष की पंचमी, द्वादशी तथा शुक्लपक्ष की षष्ठी व त्रयोदशी तिथियों में महादेव नंदी पर सवार होकर संपूर्ण विश्व में भ्रमण करते है।

अत: इन तिथियों में रुद्राभिषेक करने पर अभीष्ट सिद्ध होता है।

कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी तथा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, पूर्णिमा में भगवान महाकाल श्मशान में समाधिस्थ रहते हैं।

अतएव इन तिथियों में किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाने वाले रुद्राभिषेक में आवाहन करने पर उनकी साधना भंग होती है जिससे अभिषेककर्ता पर विपत्ति आ सकती है।

कृष्णपक्ष की द्वितीया, नवमी तथा शुक्लपक्ष की तृतीया व दशमी में महादेव देवताओं की सभा में उनकी समस्याएं सुनते हैं।

इन तिथियों में सकाम अनुष्ठान करने पर संताप या दुख मिलता है।

कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी तथा शुक्लपक्ष की चतुर्थी व एकादशी में सदाशिव क्रीडारत रहते हैं।

इन तिथियों में सकाम रुद्रार्चन संतान को कष्ट प्रदान करते है।

कृष्णपक्ष की षष्ठी, त्रयोदशी तथा शुक्लपक्ष की सप्तमी व चतुर्दशी में रुद्रदेव भोजन करते हैं।

इन तिथियों में सांसारिक कामना से किया गया रुद्राभिषेक पीडा देते हैं।

ज्योर्तिलिंग-क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।

वस्तुत: शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं।

अतः हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं।

स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करते है।

संसार में ऐसी कोई वस्तु, वैभव, सुख नही है जो हमें रुद्राभिषेक करने या करवाने से प्राप्त नहीं हो सकता है।
09/08/2015, 11:21 - ‪+91 88998 28899‬: 💥 शिव विद्या 【माया के अंधकार से मुक्ति】💥

अहंकार सत्य के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है। और समर्पण प्रतीकात्मक सहायक पृथ्वी पर माया का वाचास्व है, माया के आधीन सभी जीव जंतु पर सचेत हो कर कर्म करने से जीव माया के अन्धकार से सहज ही पार हो सकता है।

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💥शिव पुराण💥

परब्रह्म एक है और उसी की परिपूर्ण सत्ता है, वही पूजनीय है।

जीव व् ब्रह्म-- ब्रह्म परिपूर्ण है, व् जीव की     परिपूर्णता ब्रह्म से ही रचित है।

ब्रह्म विष्णु महेश त्रिदेव हैं।

सृष्टी का निर्माण, पालन और संघार के कारण करनाये हैं।

सत रज तम त्रिगुण गुण हैं। इन्ही के कम व् अधिक मेल से मनुष्य का स्वभाव बनता है।और ये ही सुख, दुःख व् मोक्ष की सीमा हैं।

सत्य- दया- ताप- दान {धर्म के चार पद हैं }

अर्थ- धर्म- काम- मोक्ष {मनुष्य जीवन के चार पथ }

आकाश, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी पंच महाभूत हैं।

और पंच भूतो के पाच गुण
शब्द, दर्शन, स्पर्श, रस, गंध हैं।



तपस्या का फल (शिव पुराण कथा )
भगवान शंकर को पति के रुप में पानें हेतू माता पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी ! भगवान के चिंतन में ध्यान मग्न थी ! उसी समय उन्हे एक बालक की चीख सुनाई दी ! माता तुरंत उठ कर वहाँ पहुंची ! उन्होने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के भीतर खींच रहा है अपना आहार बनाने के लिए ! बालक अपनी जान बचाने के लिये प्रयास कर रहा था !
करुणामयी माँ नें मगरमच्छ से निवेदन किया कि बालक को छोङ दीजिए ! मगरमच्छ बोला यह मेरा आहार है मुझे हर छटे दिन उदर पूर्ति हेतू जो पहले मिलता है , उसे मेरा आहार ब्रह्मा नें निश्चित किया है !
माता नें कहा इसको छॊङनें के बदले मैं तुम्हे अपनी तपस्या का फल दूँगी , मगरमच्छ नें कहा ठीक है ! माता नें उसी समय संकल्प कर अपनी पूरी तपस्या का फल मगरमच्छ को दे दिया !
मगरमच्छ तपस्या के फल को पाकर सूर्या की भाँति चमक उंठा , उसकी बुधिद्ध  भी शुद्ध हो गई ! उसने माता से कहा आप अपना पुण्य वापस ले लें , माता नें मना कर दिया ! बालक को सुरक्षित लौटकर माता नें अपने स्थान पर वापस आकर तप शुरू कर दिया !
भगवान शिव तुरंत ही वहाँ प्रगट हो गए और बोले पार्वती अब तुम्हे तप करने की आवश्कता नहीँ है ! हर प्राणी में मेरा ही वास है तुमने उस मगरमच्छ को तप का जो फल दिया है वह मुझे ही प्राप्त हुआ है अत: तुम्हारा तप फल अनंत गुना हो गया है ! तुमने करुणावश द्रवित होकर किसी प्राणी की रक्षा की अत: मैं तुम पर प्रसन्न हूँ तथा तुम्हे पत्नी रुप में स्वीकार करता हूँ !
कथा का सारांश यही है कि जो परहित की कामना करता है उस पर परमात्मा की असीम कृपा रहती है ! जो व्यक्ति असहायों की सहायता दयालु करुणामयी होता है ईश्वर उसको स्वीकार करते है !
जय भोले भंडारी की
ॐनमो शिवाय 🙏🙏🙏


॥ॐस्वस्तिश्री॥ "श्रावण सोमवार व्रत"
सभी कष्टों को दूर करते हैं
श्रावण सोमवार व्रत !!!
"पहले श्रावण सोमवार को,
कैसे करें व्रत"
प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार
के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार,
सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष।
सोमवार व्रत की विधि सभी व्रतों में
समान होती है। इस व्रत को श्रावण माह
में आरंभ करना शुभ माना जाता है।
श्रावण सोमवार के व्रत में भगवान शिव
और देवी पार्वती की पूजा की जाती है।
श्रावण सोमवार व्रत सूर्योदय से प्रारंभ
कर तीसरे पहर तक किया जाता है।
शिव पूजा के बाद सोमवार व्रत की
कथा सुननी आवश्यक है।
व्रत करने वाले को दिन में एक बार
भोजन करना चाहिए।
व्रतधारी क्या करें :-
* श्रावण सोमवार को ब्रह्म मुहूर्त में
सोकर उठें।
* पूरे घर की सफाई कर स्नानादि से
निवृत्त हो जाएं।
* गंगा जल या पवित्र जल पूरे घर
में छिड़कें।
* घर में ही किसी पवित्र स्थान पर
भगवान शिव की मूर्ति या चित्र
स्थापित करें।
* पूरी पूजन तैयारी के बाद निम्न मंत्र से
संकल्प लें : -
- 'मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं
सोमव्रतं करिष्ये!!'
इसके पश्चात निम्न मंत्र से ध्यान करें : --
ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं
चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं
वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं
पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥
* ध्यान के पश्चात 'ॐनमः शिवाय' से
शिवजी का तथा 'ॐ नमः शिवायै' से
पार्वतीजी का षोडशोपचार पूजन करें।
* पूजन के पश्चात व्रत कथा सुनें।
* तत्पश्चात आरती कर प्रसाद वितरण
करें।
* इसके बाद भोजन या फलाहार ग्रहण
करें।
श्रावण सोमवार व्रत फल :-
* सोमवार व्रत नियमित रूप से करने पर भगवान शिव तथा देवी पार्वती की
अनुकंपा बनी रहती है।
* जीवन धन-धान्य से भर जाता है।
* सभी अनिष्टों का भगवान शिव हरण
कर भक्तों के कष्टों को दूर करते हैं।
ॐ नम: शिवाय ॐ


भगवान शिव के 108 नाम ----
१- ॐ भोलेनाथ नमः
२-ॐ कैलाश पति नमः
३-ॐ भूतनाथ नमः
४-ॐ नंदराज नमः
५-ॐ नन्दी की सवारी नमः
६-ॐ ज्योतिलिंग नमः
७-ॐ महाकाल नमः
८-ॐ रुद्रनाथ नमः
९-ॐ भीमशंकर नमः
१०-ॐ नटराज नमः
११-ॐ प्रलेयन्कार नमः
१२-ॐ चंद्रमोली नमः
१३-ॐ डमरूधारी नमः
१४-ॐ चंद्रधारी नमः
१५-ॐ मलिकार्जुन नमः
१६-ॐ भीमेश्वर नमः
१७-ॐ विषधारी नमः
१८-ॐ बम भोले नमः
१९-ॐ ओंकार स्वामी नमः
२०-ॐ ओंकारेश्वर नमः
२१-ॐ शंकर त्रिशूलधारी नमः
२२-ॐ विश्वनाथ नमः
२३-ॐ अनादिदेव नमः
२४-ॐ उमापति नमः
२५-ॐ गोरापति नमः
२६-ॐ गणपिता नमः
२७-ॐ भोले बाबा नमः
२८-ॐ शिवजी नमः
२९-ॐ शम्भु नमः
३०-ॐ नीलकंठ नमः
३१-ॐ महाकालेश्वर नमः
३२-ॐ त्रिपुरारी नमः
३३-ॐ त्रिलोकनाथ नमः
३४-ॐ त्रिनेत्रधारी नमः
३५-ॐ बर्फानी बाबा नमः
३६-ॐ जगतपिता नमः
३७-ॐ मृत्युन्जन नमः
३८-ॐ नागधारी नमः
३९- ॐ रामेश्वर नमः
४०-ॐ लंकेश्वर नमः
४१-ॐ अमरनाथ नमः
४२-ॐ केदारनाथ नमः
४३-ॐ मंगलेश्वर नमः
४४-ॐ अर्धनारीश्वर नमः
४५-ॐ नागार्जुन नमः
४६-ॐ जटाधारी नमः
४७-ॐ नीलेश्वर नमः
४८-ॐ गलसर्पमाला नमः
४९- ॐ दीनानाथ नमः
५०-ॐ सोमनाथ नमः
५१-ॐ जोगी नमः
५२-ॐ भंडारी बाबा नमः
५३-ॐ बमलेहरी नमः
५४-ॐ गोरीशंकर नमः
५५-ॐ शिवाकांत नमः
५६-ॐ महेश्वराए नमः
५७-ॐ महेश नमः
५८-ॐ ओलोकानाथ नमः
५४-ॐ आदिनाथ नमः
६०-ॐ देवदेवेश्वर नमः
६१-ॐ प्राणनाथ नमः
६२-ॐ शिवम् नमः
६३-ॐ महादानी नमः
६४-ॐ शिवदानी नमः
६५-ॐ संकटहारी नमः
६६-ॐ महेश्वर नमः
६७-ॐ रुंडमालाधारी नमः
६८-ॐ जगपालनकर्ता नमः
६९-ॐ पशुपति नमः
७०-ॐ संगमेश्वर नमः
७१-ॐ दक्षेश्वर नमः
७२-ॐ घ्रेनश्वर नमः
७३-ॐ मणिमहेश नमः
७४-ॐ अनादी नमः
७५-ॐ अमर नमः
७६-ॐ आशुतोष महाराज नमः
७७-ॐ विलवकेश्वर नमः
७८-ॐ अचलेश्वर नमः
७९-ॐ अभयंकर नमः
८०-ॐ पातालेश्वर नमः
८१-ॐ धूधेश्वर नमः
८२-ॐ सर्पधारी नमः
८३-ॐ त्रिलोकिनरेश नमः
८४-ॐ हठ योगी नमः
८५-ॐ विश्लेश्वर नमः
८६- ॐ नागाधिराज नमः
८७- ॐ सर्वेश्वर नमः
८८-ॐ उमाकांत नमः
८९-ॐ बाबा चंद्रेश्वर नमः
९०-ॐ त्रिकालदर्शी नमः
९१-ॐ त्रिलोकी स्वामी नमः
९२-ॐ महादेव नमः
९३-ॐ गढ़शंकर नमः
९४-ॐ मुक्तेश्वर नमः
९५-ॐ नटेषर नमः
९६-ॐ गिरजापति नमः
९७- ॐ भद्रेश्वर नमः
९८-ॐ त्रिपुनाशक नमः
९९-ॐ निर्जेश्वर नमः
१०० -ॐ किरातेश्वर नमः
१०१-ॐ जागेश्वर नमः
१०२-ॐ अबधूतपति नमः
१०३ -ॐ भीलपति नमः
१०४-ॐ जितनाथ नमः
१०५-ॐ वृषेश्वर नमः
१०६-ॐ भूतेश्वर नमः
१०७-ॐ बैजूनाथ नमः
१०८-ॐ नागेश्वर नमः





एक ओर जहां महाकाल और अन्यशिवलिंगों के आकार के छोटे होते जाने की खबर आती है। वहीं, एक शिवलिंग ऐसा भी है जिसका आकार घटता नहीं बल्कि हर साल और बढ़ जाता है। छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित भूतेश्वरनाथ शिवलिंग संभवतः प्राकृतिक रूप से निर्मित दुनिया का सबसे बड़ा शिवलिंग है। यह जमीन से लगभग 18 फीट ऊंचा और 20 फीट गोलाकार है। राजस्व विभाग द्वारा हर साल इसकी उचांई नापी जाती है, जिसमें हर साल यह 6 से 8 इंच तक बढ़ा हुआ पाया जाता है।गरियाबंद जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर दूर घने जंगलों के बीच बसे मरौदा गांव में यहशिवलिंग स्थित है। 12 ज्योतिर्लिंगों की तरह इसे भी अर्धनारीश्वर शिवलिंग होने की मान्यता प्राप्त है। इस शिवलिंग का दर्शन करने और जलाभिषेक करने हर साल सैकड़ों की संख्या में कांवरिए पैदल यात्रा कर यहां पहुंचते हैं। यहां आने वाले भक्तों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है।शेर के दहाड़ने की आती है आवाजइस शिवलिंग के बारे में बताया जाता है कि कई साल पहले जमींदारी प्रथा के समय पारागांव निवासी शोभा सिंह जमींदार की यहां पर खेती-बाड़ी थी। शोभा सिंह शाम को जब अपने खेत मे घूमने जाते थे तो उन्हें एक टीले से सांड़के हुंकारने (चिल्लाने) एवं शेर के दहाड़ने कीआवाज सुनाई पड़ती थी। शुरू में उन्हें लगा कि ये उनका वहम है, लेकिन कई बार इस आवाज को सुनने के बाद शोभा सिंह ने ग्रामवासियों को इस बारे में बताया। ग्रामवासियों ने भी टीलेके पास कई बार आवाज सुनी थी। इसके बाद सभी ने आसपास सांड़ अथवा शेर की तलाश की, लेकिन दूर-दूर तक कोई जानवर नहीं मिला। तब लोगों नेमाना कि इसी टीले से आवाज आती है और टीले को भर्कुरा/भकुरा (हुंकारने की आवाज) कहने लगे।प्रकृति प्रदत्त जलहरी भीपारागांव के लोग बताते हैं कि पहले यह टीला छोटे रूप में था पर धीरे-धीरे इसकी उंचाई व गोलाई बढ़ती गई। इसका बढ़ना आज भी जारी है। लोगइस टीले को शिवलिंग के रूप में पूजने लगे। इसशिवलिंग में प्रकृति प्रदत्त जलहरी भी दिखाई देती है, जो धीरे-धीरे जमीन के ऊपर आती जा रही है। छत्तीसगढ़ी भाषा में हुंकारने की आवाज को भकुर्रा कहते हैं, इसी से भूतेश्वरनाथ को भकुर्रा महादेव भी कहते हैं।धार्मिक पत्रिका कल्याण ने बताया सबसे विशालइस शिवलिंग का पौराणिक महत्व सन 1959 में गोरखपुर से प्रकाशित धार्मिक पत्रिका कल्याण के वार्षिक अंक में उल्लेखित है, जिसमें इसे विश्व का एक अनोखा विशाल शिवलिंगबताया गया है।
06/08/2015, 10:24 - Prabhu Sharanam: शिव का अर्थ है कल्याण। 'शिव' यह दो अक्षरों वाला नाम परब्रह्मस्वरूप एवं तारक है इससे भिन्न और कोई दूसरा तारक नहीं है। शिवलिंग पूजन में जलधारा से अभिषेक का विशेष महत्व है। अभिषेक का शाब्दिक अर्थ है स्नान करना या कराना। शिवजी के अभिषेक को रुद्राभिषेक भी कहा जाता है। मिश्री(चीनी) से बने शिव लिंग कि पूजा से रोगो का नाश होकर सभी प्रकार से सुखप्रद होती हैं। मिर्च, पीपल के चूर्ण में नमक मिलाकर बने शिवलिंग कि पूजा से वशीकरण और अभिचार कर्म के लिए किया जाता हैं। फूलों से बने शिव लिंग कि पूजा से भूमि-भवन कि प्राप्ति होती हैं। जौं, गेहुं, चावल तीनो का एक समान भाग में मिश्रण कर आटे के बने शिवलिंग कि पूजा से परिवार में सुख समृद्धि एवं संतान का लाभ होकर रोग से रक्षा होती हैं। किसी भी फल को शिवलिंग के समान रखकर उसकी पूजा करने से फलवाटिका में अधिक उत्तम फल होता हैं। यज्ञ कि भस्म से बने शिव लिंग कि पूजा से अभीष्ट सिद्धियां प्राप्त होती हैं। यदि बांस के अंकुर को शिवलिंग के समान काटकर पूजा करने से वंश वृद्धि होती है। दही को कपडे में बांधकर निचोड़ देने के पश्चात उससे जो शिवलिंग बनता हैं उसका पूजन करने से समस्त सुख एवं धन कि प्राप्ति होती हैं। गुड़ से बने शिवलिंग में अन्न चिपकाकर शिवलिंग बनाकर पूजा करने से कृषि उत्पादन में वृद्धि होती हैं। आंवले से बने शिवलिंग का रुद्राभिषेक करने से मुक्ति प्राप्त होती हैं। कपूर से बने शिवलिंग का पूजन करने से आध्यात्मिक उन्नती प्रदत एवं मुक्ति प्रदत होता हैं। यदि दुर्वा को शिवलिंग के आकार में गूंथकर उसकी पूजा करने से अकाल-मृत्यु का भय दूर हो जाता हैं। स्फटिक के शिवलिंग का पूजन करने से व्यक्ति कि सभी अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। मोती के बने शिवलिंग का पूजन स्त्री के सौभाग्य में वृद्धि करता हैं। स्वर्ण निर्मित शिवलिंग का पूजन करन�
06/08/2015, 10:25 - Prabhu Sharanam: सर्प (नागराज) पूजन एक पुष्प में चन्दन लगाकर शिव जी के पीछे छोड दें। एक आचमनी जल छोड दें। गौरी पूजा एक रक्त पुष्प में चन्दन, चावल लगाकर शिव जी के बायीं ओर जलहरि पर छोड दें। एक आचमनी जल छोड दें। प्रार्थना - महिला वर्ग गौरी से प्रार्थना करें कि हे मॉं ! मैं जिस उद्देश्य से आपकी पूजन कर रहीं हूँ। उसकी पूर्ति करते हुए मेरे सौभाग्य की रक्षा करें। शिव पूजन अपने दोनों हाथों के बीच में विल्वपत्र रखकर नेत्र बंद कर भोलेनाथ का आवाहन करें। उस समय मन में भाव यह हो कि आप इस जगत के स्वामी हैं। किन्तु मैं जब तक आपकी पूजन कर रहा हूँ। तब तक आप मेरे प्रेम भाव के कारण इस शिवलिंग में आकर स्थिर हो जावें। इस भाव के द्वारा शिवलिंग पर विल्वपत्र चढ़ावे। तत्पश्चात तीन बार आचमनी से शिव जी के सामने जल उतारकर छोड दें। चौथी बार में शिव जी को स्नान करावें। इसके बाद क्रमशः इस प्रकार विभिन्न वस्तुओं से स्नान करावें। दूध से - पुनः शुद्ध स्नान दही से - पुनः शुद्ध स्नान घी से - पुनः शुद्ध स्नान शकर से - पुनः शुद्ध स्नान पंचामृत से - (दूध, दही, घी, शहद (नाममात्र के लिऐ) शकर - पुनः शुद्ध स्नान गंध चन्दन से - पुनः शुद्ध स्नान भस्म से - पुनः शुद्ध स्नान इत्र से - पुनः शुद्ध स्नान फल के रस से - पुनः शुद्ध स्नान पुष्पोदक (पुष्प के जल से) - पुनः शुद्ध स्नान स्वर्णोंदक (स्वर्ण के जल से) - पुनः शुद्ध स्नान गर्भोदक से (नारियल के जल से) - पुनः शुद्ध स्नान विजया से (भॉंग) - पुनः शुद्ध स्नान तीर्थ जल से(नर्मदा, गंगा आदि का जल) - तीर्थ जल से स्नान के बाद शुद्ध जल से स्नान नहीं। १६ बार ऊॅं नमः शिवाय बोलते हुए शिव जी के ऊपर लगातार जल धरा छोड़े । पुनः शुद्ध स्नान मौली जनेऊ में थोडा सा चन्दन लगाकर चढ़ावे - एक आचमनी जल छोड दें। चन्दन चावल रोली (शिव जी के नीचे जलहरी पर) पुष्प विल्वपत्र धूप (अगरबत्ती) दीपक के पास थोड़े से चावल छोड़े हाथ धोवें। नैवेध (प्
06/08/2015, 10:25 - Prabhu Sharanam: कालचक्र पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन ब्रम्हा की आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है. पितामह ब्रम्हा के प्रथम ५० वर्षों को पूर्वार्ध एवं अगले ५० वर्षों को उत्तरार्ध कहते हैं। सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलकर एक महायुग कहते हैं। ऐसे १००० महायुगों का ब्रम्हा का एक दिन होता है।इसी प्रकार १००० महायुगों का ब्रम्हा की एक रात्रि होती है।अर्थात परमपिता ब्रम्हा का एक पूरा दिन २००० महायुगों का होता है।ब्रम्हा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है। भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख)घाटियों की भगवान शिव की आधी कला होती है। महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर१ ब्रम्हाक्ष होता है।अभी ब्रम्हा के उत्तरार्ध का पहला वर्ष चल रहा है (ब्रम्हा का ५१ वा वर्ष)।ब्रम्हा के एक दिन में १४ मनु शाषण करते हैं: 1. स्वयंभू 2. स्वरोचिष 3. उत्तम 4. तामस 5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत 8. सावर्णि 9. दक्ष सावर्णि 10. ब्रम्हा सावर्णि 11. धर्म सावर्णि 12. रूद्र सावर्णि 13. देव सावर्णि 14. इन्द्र सावर्णि इस प्रकार ब्रम्हा के द्वितीय परार्ध (५१ वे) वर्ष के प्रथम दिन के छः मनु व्यतीत हो गए है और सातवे वैवस्वत मनु काअठाईसवा (२८) युग चल रहा है। इकहत्तर (७१) महायुगों का एक मनु होता है। १४ मनुओं का १ कल्प कहा जाता है जो की ब्रम्हा का एक दिन होता है। आदि में ब्रम्हा कल्प और अंत में पद्मा कल्प होता है. इस प्रकार कुल ३२ कल्प होते हैं। ब्रम्हा के परार्ध में रथन्तर तथा उत्तरार्ध में श्वेतवराह कल्प होता है। इस समय श्वेतवराह कल्प चल रहा है। इस प्रकार ब्रम्हा के १ दिन (कल्प) ४०००३२००००००० (चार लाख बतीस "करोड़")मानव वर्ष के बराबर है जिसमे १४ मवंतर होते है. चार युगों का एक महायुग होता है: 1. सतयुग: सतयुग का काल १७२८००० (सत्रह लाख अठाईस हजार) वर्षों का होता है। इस युग में चार अमानवीय अवतार हु
06/08/2015, 10:26 - Prabhu Sharanam: 🌺🍀शिव शक्ति क्या है ? 🌺🍀

🌻🌻शिवपुराण के अनुसार शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है। शिव की जो पराशक्ति है उससे चित्‌ शक्ति प्रकट होती है। चित्‌ शक्ति से आनंद शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, आनंद शक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है, इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पांचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है। इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएं उत्पन्न हुई हैं।🌻🌻

🌻🌻चित्‌ शक्ति से नाद और आनंदशक्ति से बिंदु का प्राकट्य बताया गया है। क्रियाशक्ति से 'अ' कार की उत्पत्ति, ज्ञानशक्ति से पांचवां स्वर 'उ' कार व इच्छाशक्ति से 'म' कार प्रकट हुआ है। इस प्रकार प्रणव (ॐ) की उत्पत्ति हुई है🌻🌻

🌻🌻शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है। तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है। 🌻🌻

🌻🌻ईशान से चित्‌ शक्ति द्वारा मिथुनपंचक की उत्पत्ति होती है। अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि इन पांच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक कहते हैं। यह बात तत्वदर्शी ज्ञानी मुनियों ने कही है।🌻🌻

🌻🌻आकाशादि के क्रम से इन पांचों मिथुनों की उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां मिथुन पृथ्वी है। इनमें आकाश से लेकर पृथ्वी तक के भूतों का जैसा स्वरूप बताया गया है, वह इस प्रकार है -

👉💯आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है,
👉💯वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं,
👉💯अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चार गुण माने गए हैं तथा
👉💯पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप , रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न है।

🌻🌻पांच भूतों (महत्‌ तत्व) का यह विस्तार ही प्रप
06/08/2015, 10:27 - Prabhu Sharanam: यदि एक व्यक्ति कहे, यह सूर्य है। और दूसरा कहे, यह सूर्य नहीं है। तो जैसे सूर्य का निश्चय करना कठिन हो जाएगा। वैसी ही कठिनाई आज ईश्वर के स्वरूप का निर्णय करने में हो चुकी है। सूर्य के सही स्वरूप का निर्णय भौतिक विज्ञान की पुस्तक से होगा। वैसे ही ईश्वर के सही स्वरूप का निर्णय वेद की पुस्तक से होगा ।
06/08/2015, 10:28 - Prabhu Sharanam: 1.शिव – कल्याण स्वरूप
2.महेश्वर – माया के अधीश्वर
3.शम्भू – आनंद स्वरूप वाले
4.पिनाकी – पिनाक धनुष धारण करने वाले
5.शशिशेखर – चंद्रमा धारण करने वाले
6.वामदेव – अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
7.विरूपाक्ष – विचित्र अथवा तीन आंख वाले
8.कपर्दी – जटा धारण करने वाले
9.नीललोहित – नीले और लाल रंग वाले
10.शंकर – सबका कल्याण करने वाले
11.शूलपाणी – हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
12.खटवांगी- खटिया का एक पाया रखने वाले
13.विष्णुवल्लभ – भगवान विष्णु के अति प्रिय
14.शिपिविष्ट – सितुहा में प्रवेश करने वाले
15.अंबिकानाथ- देवी भगवती के पति
16.श्रीकण्ठ – सुंदर कण्ठ वाले
17.भक्तवत्सल – भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
18.भव – संसार के रूप में प्रकट होने वाले
19.शर्व – कष्टों को नष्ट करने वाले
20.त्रिलोकेश- तीनों लोकों के स्वामी
21.शितिकण्ठ – सफेद कण्ठ वाले
22.शिवाप्रिय – पार्वती के प्रिय
23.उग्र – अत्यंत उग्र रूप वाले
24.कपाली – कपाल धारण करने वाले
25.कामारी – कामदेव के शत्रु, अंधकार को हरने वाले
26.सुरसूदन – अंधक दैत्य को मारने वाले
27.गंगाधर – गंगा को जटाओं में धारण करने वाले
28.ललाटाक्ष – माथे पर आंख धारण किए हुए
29.महाकाल – कालों के भी काल
30.कृपानिधि – करुणा की खान
31.भीम – भयंकर या रुद्र रूप वाले
32.परशुहस्त – हाथ में फरसा धारण करने वाले
33.मृगपाणी – हाथ में हिरण धारण करने वाले
34.जटाधर – जटा रखने वाले
35.कैलाशवासी – कैलाश पर निवास करने वाले
36.कवची – कवच धारण करने वाले
37.कठोर – अत्यंत मजबूत देह वाले
38.त्रिपुरांतक – त्रिपुरासुर का विनाश करने वाले
39.वृषांक – बैल-चिह्न की ध्वजा वाले
40.वृषभारूढ़ – बैल पर सवार होने वाले
41.भस्मोद्धूलितविग्रह – भस्म लगाने वाले
42.सामप्रिय – सामगान से प्रेम करने वाले
43.स्वरमयी – सातों स्वरों में निवास करने वाले
44.त्रयीमूर्ति – वेद रूपी विग्रह करने वाले
45.अनीश्वर – जो स्वयं ही सबके स्वामी है
46.सर्वज्ञ – सब कुछ जानने वाले
47.परमात्मा – सब आत्माओं में सर्वोच्च
48.सोमसूर्याग्निलोचन – चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आंख वाले
49.हवि – आहुति रूपी द्रव्य वाले
50.यज्ञमय – यज्ञ स्वरूप वाले
51.सोम – उमा के सहित रूप वाले
52.पंचवक्त्र – पांच मुख वाले
53.सदाशिव – नित्य कल्याण रूप वाले
54.विश्वेश्वर- विश्व के ईश्वर
55.वीरभद्र – वीर तथा शांत स्वरूप वाले
56.गणनाथ – गणों के स्वामी
57.प्रजापति – प्रजा का पालन- पोषण करने वाले
58.हिरण्यरेता – स्वर्ण तेज वाले
59.दुर्धुर्ष – किसी से न हारने वाले
60.गिरीश – पर्वतों के स्वामी
61.गिरिश्वर – कैलाश पर्वत पर रहने वाले
62.अनघ – पापरहित या पुण्य आत्मा
63.भुजंगभूषण – सांपों व नागों के आभूषण धारण करने वाले
64.भर्ग – पापों का नाश करने वाले
65.गिरिधन्वा – मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
66.गिरिप्रिय – पर्वत को प्रेम करने वाले
67.कृत्तिवासा – गजचर्म पहनने वाले
68.पुराराति – पुरों का नाश करने वाले
69.भगवान् – सर्वसमर्थ ऐश्वर्य संपन्न
70.प्रमथाधिप – प्रथम गणों के अधिपति
71.मृत्युंजय – मृत्यु को जीतने वाले
72.सूक्ष्मतनु – सूक्ष्म शरीर वाले
73.जगद्व्यापी- जगत में व्याप्त होकर रहने वाले
74.जगद्गुरू – जगत के गुरु
75.व्योमकेश – आकाश रूपी बाल वाले
76.महासेनजनक – कार्तिकेय के पिता
77.चारुविक्रम – सुन्दर पराक्रम वाल
े78.रूद्र – उग्र रूप वाले
79.भूतपति – भूतप्रेत व पंचभूतों के स्वामी
80.स्थाणु – स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाल
े81.अहिर्बुध्न्य – कुण्डलिनी- धारण करने वाले
82.दिगम्बर – नग्न, आकाश रूपी वस्त्र वाल
े83.अष्टमूर्ति – आठ रूप वाले
84.अनेकात्मा – अनेक आत्मा वाले
85.सात्त्विक- सत्व गुण वाले
86.शुद्धविग्रह – दिव्यमूर्ति वाल े
87.शाश्वत – नित्य रहने वाले
88.खण्डपरशु – टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
89.अज – जन्म रहित
90.पाशविमोचन – बंधन से छुड़ाने वाले
91.मृड – सुखस्वरूप वाले
92.पशुपति – पशुओं के स्वामी
93.देव – स्वयं प्रकाश रूप
94.महादेव – देवों के देव
95.अव्यय – खर्च होने पर भी न घटने वाले
96.हरि – विष्णु समरूपी
97.पूषदन्तभित् – पूषा के दांत उखाड़ने वाले
98.अव्यग्र – व्यथित न होने वाल
े99.दक्षाध्वरहर – दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले
100.हर – पापों को हरने वाले
101.भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
102.अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
103.सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
104.सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
105.अपवर्गप्रद - मोक्ष देने वाले
106.अनंत - देशकाल वस्तु रूपी परिच्छेद से रहित
107.तारक - तारने वाले
108.परमेश्वर - प्रथम ईश्वर



🙏केवल शिव का पूजन ही लिंग रूप में क्यों?


🙏हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजन की प्रथा काफी प्राचीन समय से चली आ रही है। सभी देवताओं को मूर्ति रूप में पूजा जाता है। लेकिन शिव ही एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो लिंग यानी निराकार रूप में पूजे जाते हैं क्योंकि भगवान शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार कहे गए। रूपवान होने के कारण सकल कहलाए। ऐसी मान्यता है कि सृष्टी की उत्पति का दिन ही शिवरात्रि है।

🙏इसीलिए उन्हें प्रथम पुरुष भी कहा जाता है। शिव ही वे देवता हैं जिन्होंने कभी कोई अवतार नहीं लिया। शिव कालों के काल है यानी साक्षात महाकाल हैं। वे जीवन और मृत्यु के चक्र से परे हैं इसीलिए समस्त देवताओं में एकमात्र वे परब्रम्ह है इसलिए केवल वे ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। इस रूप में समस्त ब्रम्हाण्ड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण है। शिव का पूजन लिगं रूप में ही ज्यादा फलदायक माना गया है। शिव का मूर्तिपूजन भी श्रेष्ठ है किंतु लिंग पूजन सर्वश्रेष्ठ है।


शिवपूजा में बेलपत्र

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महादेव को प्रसन्न करने के लिए स्वयं महालक्ष्मी ने बेलवृक्ष का रूप लिया था और शिवलिंग को अपनी छाया प्रदान करती थीं. खुश होकर शिवजी ने महालक्ष्मी से कहा कि बेलवृक्ष की जड़ों में मेरा निवास होगा और बेलपत्र मुझे अतिप्रिय होगा.

कालकूट विष पीने के बाद शिवजी के मस्तिष्क को शांत करने के लिए देवों ने उन्हें जल से नहलाया. उसके बाद बेलपत्र सिर पर रखे. बेलपत्र की तासीर ठंढ़ी होती है इसलिए शिवजी को जल के साथ बेलपत्र अतिप्रिय है.

बिल्ववृक्ष का दर्शन, स्पर्श व प्रणाम भी पुण्यकारी है. शिवजी को अखंडित बेलपत्र चढ़ाने से शिवलोक प्राप्त होता है. बेलपत्र के लिए कुछ सावधानियां कही गई हैं. चौथ, अमावस्या, अष्टमी, नवमी, चौदस, संक्रांति व सोमवार को बिल्वपत्र तोडना मना है.

बेलपत्र उल्टा अर्पित करें यानी पत्ते का चिकना भाग शिवलिंग को स्पर्श करे. पत्र में चक्र या वज्र नहीं होना चाहिए. कीड़ों द्वारा बनाए सफेद चिन्ह को चक्र व बेलपत्र के डंठल के मोटे भाग को वज्र कहते हैं. 3 से 11 पत्ते तक के बेलपत्र होते हैं. जितने अधिक पत्रों के हों उतना उत्तम.बेलपत्र चढ़ाते समय इस मंत्र का उच्चारण करें-

त्रिद्लं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मं पापसंहारम् एक बिल्व शिव अर्पिन।।

यदि मंत्र याद न हो तो ऊं नमः शिवाय जपें.बेलपत्र न मिल पाए तो उसके स्थान पर चांदी का बेलपत्र चढ़ाया जा सकता है जिसे रोज शुद्धजल से धोकर शिवलिंग पर पुनः अर्पण कर सकते हैं. बेलवृक्ष की जड़ में शिव का वास है इसलिए जड़ में गंगाजल के अर्पण का बड़ा महत्व है.

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सावन में क्यों होती है शिवजी की विशेष पूजा

 - भगवान शिव के जीवन में ज्ञान का सागर छिपा है. शिवजी विवाह के लिए बैल पर सवार होकर गए. पंचामृत उनका प्रिय प्रसाद है.इन दोनों के महत्व को समझेंगे.

आमजन विवाह के लिए घोड़ी पर जाते हैं. घोड़ी सर्वाधिक कामुक जीव है. उसपर सवार होकर जाने में संदेश है कि दूल्हा काम के वश में होने के लिए नहीं बल्कि घोड़ी रूपी कामवासना को अपने वश में करने के लिए विवाह बंधन में बंधने जा रहा है.

शिवजी ने काम को भस्म किया था. काम उनके जीवन में महत्वहीन है. इसलिए वह विवाह के लिए धर्म रूपी बैल पर सवार होकर गए. इससे शिक्षा मिलती है कि विवाह का पवित्र बंधन नवदंपती को धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है.

सावन में कामदेव की सेना वर्षा की बौछारें व सुगंधित पवन कामवासना जागृत करती है. सावन में शिव की पूजा का विशेष महत्व इसलिए हो जाता हैं क्योंकि शिव काम की प्रबलता का नाश करके पतन से बचाते हैं.

शिवजी को चढ़ने वाले पंचामृत में भी एक गूढ़ संदेश है. पंचामृत दूध, दही, शहद व घी को गंगाजल में मिलाकर बनता है.

दूधः जब तक बछड़ा पास न हो गाय दूध नहीं देती. बछड़ा मर जाए तो उसका प्रारूप खड़ा किए बिना दूध नहीं देती. दूध मोह का प्रतीक है.

शहदः मधुमक्खी कण-कण भरने के लिए शहद संग्रह करती है. इसे लोभ का प्रतीक माना गया है.

दहीः इसका तासीर गर्म होता है.क्रोध का प्रतीक है.

घीः यह समृद्धि के साथ आने वाला है और अहंकार का प्रतीक है.

गंगाजलः भगीरथ के पूर्वजों ने पितरों की मुक्ति के लिए शिवजी की उपासना की और गंगाजल को पृथ्वी पर लेकर आए. यह मुक्ति का प्रतीक है. गंगाजल मोह, लोभ, क्रोध और अहंकार को समेटकर शांत करता है.

संकलनः नीलम शर्मा




यों है शिवलिंग के पूजन का विधान
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ॐ माता शक्ति ने १०८ बार जनम ग्रहण किया है| शिव
की प्राप्ति हेतु माता शक्ति के पास स्थूल
शरीर को अमर करने का ज्ञान न होने के कारण हि
उनकी मृत्यु होती गई और प्रत्येक जनम
में वो शिव स्वरूप शंकर जी कि अर्धांगिनी
बनती गई | जिस का प्रमाण उनके गले में माता के १०८
नर मुंडों से प्रतीत होता है | स्थूल शरीर
को अमर करने का ज्ञान माता शक्ति को परमात्मा शिव ने १०८ वे
जन्म में परमात्मा शिव ने दिया जब को परवत राज हिमालय
की पुत्री पार्वती के नाम से
व्यख्यात हुई | माता अपने १०७वें जन्म में राजा दक्ष
की पुत्री बनी और उनका नाम
सती कहलाया | माता सती के पिता राजा
दक्षजी ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन रखा और
पूर्ण पृथ्वी के राजा, महाराजाओं इत्यादि को उस यज्ञ
में बुलवाया | शंकरजी उनके दामाद होते हुए
भी उन को आमंत्रण नहीं दिया गया |
भूतनाथ होने के कारण ही राजादक्ष उनसे घृणा करते
थे | माता सती ने जब महादेवजी से यज्ञ
में पधारने को कहा तो उन्होंने आमंत्रण न दिए जाने
की वजह से यज्ञ में जाने से इनकार कर दिया | बिन
आमंत्रण के जाने से उचित सम्मान की प्राप्ति
नहीं होती | पिता मोह के कारण माता
सती से नहीं रूका गया और वो यज्ञ के
लिए अकेले ही चल पड़ी | माता जब
यज्ञस्थल पर पहुंची तो उन्होंने देखा
की पूर्ण यज्ञ में कहीं भी
उनके पति महादेवजी का आसन मात्र भी
नहीं है | यह देखकर माता को क्रोध आ गया और
उन्होंने अपने पिता राजा दक्षजी से इस बात पर तर्क
किया | उस समय राजा दक्षजी ने बड़े ही
हीन वचन शंकरजी के बारे में कहें जिन
को माता न सुन पाई और यज्ञ के अग्नि कुंड में कूदकर स्वयं को
उन्होंने भस्म कर लिया | इस बात की सूचना जब
महादेवजी को मिली तो वे अत्यंत क्रोधित
हुए और उनके गणों ने पूर्ण यज्ञ का विध्वंस कर दिया |
महादेवजी ने राजा दक्ष का सिर काट दिया और उसके
शरीर पर बकरे का सिर जोड़ दिया | माता सती
के पार्थिव शरीर को उठकर शंकरजी वहां
से चल दिए | माता का शरीर अग्नि में जलकर कोयला हो
चुका था | शक्ति के बिना शिव फिर से अधूरे हो गए | इस समय काल
में ही उनकी लिंग का पतन बारह टुकड़ों में
हुआ और उसी समय ब्रह्माण्ड से यह बाराह
ज्योतिलिंगों की स्थापना पृथ्वी पर हुई |
इनकी स्थापना के समय पूर्ण पृथ्वी में
कंपन मच गई | जिस प्रकार से पृथ्वी का विराट है
उसी प्रकार शिव बाबा का भी विराट रूप मौजूद
है ब्रह्माण में जिस के दर्शनों तक पहुंचने हेतु मानव के पास
कोई यंत्र नहीं है | परमात्मा शिव विराट रूप में
भी हैं और ज्योर्तिबिंदू रूप में भी है |
ज्योर्तिबिंदू रूप में वो परकाया प्रवेश कर पाते हैं | उनके इस विराट
रूपी ज्योर्तिलिंगों ने पूर्ण सृष्टी में कोहराम
मचा दिया | सृष्टि को विनाश से बचाने हेतु ब्राह्मणों ने
ब्रह्माजी का आव्हान किया और इस समस्या का
समाधान उनसे पूछा | उस समय ब्रह्माजी नेे स्पष्ट
रूप से बताया कि शिवलिंग पूजन नारी के लिए वर्जित है |
शिवलिंग पूजन के समय नारी अपने पति के बाएं हाथ पर
स्थानग्रहण करेगी और शिवलिंग पूजन का फल पति-
पत्नी दोनों ग्रहण कर पाएंगे | यज्ञ आदि के
अनुष्ठान में पत्नी नर के दाहिने हाथ पर आसन
ग्रहण करती है क्योंकि उस समय वो
लक्ष्मी का रूप मानी जाती हैं
| नारी अगर शिवलिंग की पूजा आराधना
अकेले संपन्न करती है तो वो पाप कर्म
की अभागी होती है | शिवलिंग
अभिषेक पति- पत्नी दोनों द्वारा ही संपन्न
होने चाहिए | ब्रह्माजी ने चारों वर्णों के लिए अलग-
अलग शिवलिंग की व्याखा भी बताई है |
1. ब्राह्मण वर्ग- परशिव (मिट्टी के)
बामी मिट्टी जिसमें सर्प का वास होता है |
2. छत्रिय वर्ग- सफेद मिट्टी
3. वैश्य वर्ग- पिली मिट्टी
4. शूद्र वर्ग- काली मिट्टी
मानव अपने जीवन में अनेकों प्रकार के कष्टों से घिरा
रहता है | इन कष्टों के निर्वाण हेतु ही भिन्न-
भिन्न तत्वों से रूद्रा अभिषेक के विधान बताऐं गए | जिस प्रकार गाय
के दूध से शिवलिंग अभिषेक से स्वास्थ अच्छा रहता है
उसी प्रकार से गन्ने के रस से लक्ष्मी
की प्राप्ति इत्यादि- इत्यादि | जैसा कष्ट वैसा समाधान